Saturday, June 18, 2011

ब्रह्माण्ड के खुलते रहस्य - ३: ब्रह्माण्ड की चाबियां

ब्रह्माण्ड का रहस्य खोलने के लिए दो चाबियां नितान्त आवश्यक हैं। एक तो सैद्धान्तिक चाबी और दूसरे कोई दूरदर्शियों जैसे उपकरण जो ब्रह्माण्ड का वांछित अवलोकन कर सकें। और ये दोनों चाबियां अन्योन्याश्रित होती हैं। ब्रह्माण्ड के विषय में प्रथम व्यापक सिद्धान्त 1917 में आइन्स्टाइन ने प्रतिपादित किया था, उसकी एक चाबी थी ‘ब्रह्माण्ड की स्थिर दशा’; सारे दिक् में नक्षत्रों आदि के वितरण को देखते हुए बीसवीं शती के प्रारम्भ में वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि ब्रह्माण्ड में तारे समांगी या समरूप से वितरित हैं। इनके वितरण की समरूपता में कोई विशेष अन्तर नहीं आता। इस आधार पर ब्रह्माण्ड के निर्माण को समझने के लिये माना था कि अनन्त काल से ब्रह्माण्ड ऐसा ही है और अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा। उस समय की सामान्य वैज्ञानिक सोच प्रारम्भिक ‘स्थिर दशा’ को मानती थी।

उस समय मन्दाकिनियों के प्रसारण का न तो किसी को ज्ञान था और न किसी ने कल्पना की थी। किन्तु मजे की बात यह कि 1917 में आइन्स्टाइन ने जब अपने क्रान्तिकारी व्यापक आपेक्षिकता के सिद्धान्त अथार्त आपेक्षिकी के आधार पर ब्रह्माण्ड का जो मॉडल प्रतिपादित किया था तब उसमें बह्माण्ड का प्रसारी होना स्वत: ही उद्भासित हो रहा था! किन्तु आइन्स्टाइन द्वारा प्रतिपादित ब्रह्माण्ड का आधार माना हुआ मॉडल स्थिर समरूप तथा गोलीय ज्यामिति वाला था। अतएव आइन्स्टाइन ने अपने उस क्रान्तिकारी गणितीय सूत्र में प्रसार को रोकने के लिये एक ‘ब्रह्माण्डीय नियतांक घटक’ डाल दिया था। इसे ब्रह्माण्डीय नियतांक घटक को प्रतिगुरुत्वाकर्षण प्रभाव कहा गया। और इसका ‘शून्य ऊर्जा घनत्व’ से सम्बन्ध स्थापित किया गया। आइन्स्टाइन ने यदि अपने गणितीय सूत्र पर भरोसा किया होता तब उस काल में ही ब्रह्माण्ड विज्ञान ने कितनी प्रगति कर ली होती। बाद में आइन्स्टाइन ने उस क्रिया को अपने जीवन की सब से बड़ी गलती मानी।

एक सैद्धान्तिक चाबी जिसे आज अधिकांश वैज्ञानिक मानते हैं, और जो बीसवीं सदी के तीसरे दशक में हबल के अवलोकनों तथा निष्कर्षों पर आधारित है, वह है ‘प्रसारी ब्रह्माण्ड सिद्धान्त’ (एक्स्पाण्डिंग यूनिवर्स थ्योरी)। इसके अनुसार विश्व या ब्रह्माण्ड का उद्भव एक बिन्दु में समाए समस्त ब्रह्माण्ड के विस्फोट से होता है। ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड तीव्र गति से भाग रहे हैं। इसीलिये इस सिद्धान्त का नाम ‘प्रसारी ब्रह्माण्ड’ रखा गया जिसे आम भाषा में ‘महान विस्फोट’ भी बोलते हैं। इस विस्तार को हम एक फूलते हुए गुब्बारे की तरह भी देख सकते हैं, यद्यपि इस उपमा की, सभी उपमाओं की तरह, सीमाएं हैं। इस ब्रह्माण्ड में जो पिण्ड जितनी दूर है वह उतनी ही तेजी से भाग रहा है। (यह भी दृष्टव्य है कि भारतीय शास्त्रों में ब्रह्म का एक अर्थ विस्तार या विस्तृत या विराट भी है। मुण्डक उपनिषद में ( 1.1.8. ‘तपसा चीयते ब्रह्माण्ड’) कहा है कि ‘तप’ से ब्रह्म का प्रसार होता है। (यह मन्त्र संयोग नहीं है वरन ऋषियों द्वारा अन्तदृर्ष्टि से देखा गया सत्य है।) हबल ने दूरी तथा वेग के अनुपात के नियतांक का मान भी निकाला था जो 100 था, इसका मान आधुनिकतम अवलोकनों तथा गणनाओं से 70–75 के बीच में माना जाता है। इस नियतांक का नाम हबल नियतांक है। हबल ने मन्दाकिनियों के वेग का निष्कर्ष डाप्लर सिद्धान्त के अनुसार ‘अवरक्त विस्थापन’ को मापकर निकाला।

अवरक्त – विस्थापन (इन्फ्रारें शिफ्ट)
डा. हबल ने बीसवीं शती की तीसरी दशाब्दि में नक्षत्रों तथा मन्दाकिनियों का बारीक निरीक्षण किया। उस अवलोकन में वे उन तारों या मन्दाकिनियों के प्रकाशीय वर्णक्रम को बारीकी से परख रहे थे। प्रत्येक तारे में हाइड्रोजन, हीलियम आदि गैसें होती हैं जो प्रकाश के वर्णक्रम में कुछ चारित्रिक (फ्राउन हौफ़र) पंक्तियां देती हैं।

कुछ निश्चित दशाओं में इन पंक्तियों का वर्णक्रम में स्थान निश्चित होता है। जब ये पंक्तियां अपने स्थानों पर नहीं होतीं तब वे विस्थापित कही जाती हैं। किन्तु, सभी पिण्डों के वर्णक्रम में उन्होंने भिन्न मात्राओं में अवरक्त विस्थापन पाया। जिस तरह आती हुई रेल की सीटी की ध्वनि का तारत्व (आवृत्ति) बढ़ जाता है, और जाती हुई रेल की सीटी ध्वनि का तारत्व कम होता सुनाई देता है, उसी तरह जब प्रकाश का स्रोत जैसे मन्दाकिनी जब हम से तेजी से दूर भागती है तब प्रकाश–तंरगों की आवृत्ति कम होती है अथार्त वह लाल रंग की तरफ विस्थापित होती है। और यदि वह पास आ रही हो तो नीले रंग की तरफ विस्थापित होती है।

डॉप्लर के इसी सिद्धान्त के आधार पर इस अवरक्त विस्थापन का अर्थ उन्होंने निकाला कि ब्रह्माण्ड में सभी पिण्ड तेजी से एक दूसरे से दूर भाग रहे हैं। यह खगोल विज्ञान में बीसवीं शती की सर्वाधिक क्रान्तिकारी खोज थी कि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है। हबल ने पिछली शती के तीसरे दशक में किये अपने दीर्धकालीन अवलोकनों के आधार पर एक नियम बनाया जो कहता है कि जो मन्दाकिनी जितनी दूर है वह उतनी ही तेजी से भाग रही है।

हबल के नियम के अनेक क्रान्तिकारी परिणाम थे, उनमें यह भी था कि ब्रह्माण्ड का जो प्रसार हो रहा है, वह अनन्तकाल से तो नहीं हो सकता, अथार्त उसका किसी क्षण प्रारंभ हुआ होगा। उस उद्भव के क्षण की गणना की जा सकती है। तथा इस सिद्धान्त के अनुसार उस क्षण ब्रह्माण्ड का समस्त पदार्थ सुई की नोक से भी अत्यन्त छोटे बिन्दु में समाहित था। मैंने कहा था न कि ब्रह्माण्ड की बातें कल्पनातीत लगती हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि करोड़ों करोड़ों और इस तरह से हम ऐसा एक करोड़ बार कहें उतने सूर्यों के पदार्थों से भी अधिक पदार्थ सुई की नोक से भी छोटे बिन्दु में समाया था – सुई की नोक से कितना छोटा – सुई की नोक के बराबर के बिन्दु के एक करोड़ के करोड़वें हिस्से से भी छोटा! (कठोपनिषद 1.2.20 में लिखा है, अणोरणीयान महतो महीयान अथार्त वह (अथार्त ब्रह्म) अणुओं का भी अणु है और महत का भी महत है, महान विस्फोट की इस जानकारी के बाद कठोपनिषद के इस मन्त्र का अर्थ प्रचलित अर्थ के अतिरिक्त एक नए रूप में दृष्टिगत होता है।) और आज वही पदार्थ अकल्पनीय रूप से विराट दिक या जगह में फैला हुआ है। कितना विराट ? प्रकाश एक सैकैण्ड में 3 लाख किलोमीटर की यात्रा करता है, तथा एक वर्ष में लगभग साढ़े नौ लाख करोड़ किमी की यात्रा करता है। ब्रह्माण्ड की त्रिज्या इतनी लम्बी है कि उसे किलोमीटर में नहीं नापते वरन प्रकाश–वर्षों में नापते हैं। ब्रह्माण्ड की त्रिज्या लगभग 1370 करोड़ प्रकाशवर्ष है, जो अभी तक दृश्य ब्रह्माण्ड (लगभग दस करोड़ प्रकाशवर्ष) की सीमा से भी परे है। ब्रह्माण्ड की सीमा का निरन्तर प्रसार हो रहा है। क्या भारतीय शास्त्रों में इसीलिये ब्रह्म को निस्सीम कहते हैं?

ब्रह्माण्ड विज्ञान या ब्रह्माण्डिकी के मुख्य प्रश्न हैं, ब्रह्माण्ड का उदभव, आयु तथा विस्तार, ब्रह्माण्ड में पदार्थ की संरचना, प्रकार तथा परिमाण, तथा ब्रह्माण्ड की दशा अथार्त ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है, किस गति से हो रहा है, कब तक होता रहेगा आदि।