Tuesday, June 28, 2011

बंद हो रही हैं सौर गतिविधियाँ



सूर्य
सूर्य
क्या हो रहा है सूर्य को ? क्या सौर गतिविधीयाँ बंद हो रही है?
नयी जानकारीयाँ इसी दिशा की ओर संकेत दे रही है कि सौर गतिविधियाँ हमेशा के लिए तो नही लेकिन अल्पकाल के लिए बंद हो रही हैं। वर्तमान मे सूर्य सौर गतिविधियाँ के चक्र के चरम(2013) मे पहुंच रहा है और हम सौर गतिविधियोँ मे वृद्धि देख रहे है, ज्यादा सौर धब्बे, ज्यादा सौर ज्वाला इत्यादि। लेकिन यह सौर गतिविधियाँ सामान्य से कम है। इस बात के भी मजबूत संकेत मिले हैं कि सौर गतिविधियाँ का अगला चरम (2022 या पश्चात) और भी कमजोर होगा या यह चरम होगा ही नही। 

ऐसा क्यों ? सूर्य आयोनाइज्ड गैस अर्थात प्लाज्मा की एक विशालकाय गेंद है जिसका काफी जटिल चुंबकिय क्षेत्र है जो इस प्लाज्मा से प्रतिक्रिया करता है। इस चुंबकिय क्षेत्र का बल और गतिविधियाँ 11 वर्ष के चक्र मे चरम अवस्था और निम्न अवस्था प्राप्त करता है। जब यह चक्र अपने निम्न स्तर पर होता है, चुंबकिय क्षेत्र अपने निम्न पर होता है और हम कम सौर धब्बे या शून्य सौर धब्बे देखते है। इस समय अन्य सौर गतिविधियाँ भी अपने निम्न स्तर पर होती हैं। इसके पश्चात 5 वर्ष से कुछ ज्यादा काल मे चक्र अपने चरम पर होता है और सौर गतिविधियाँ अपने चरम पर होती है, हम ज्यादा सौर धब्बे, ज्यादा सौर ज्वाला देखते हैं।
वैज्ञानिक इस सौर चक्र का पिछली एक शताब्दी से निरिक्षण कर रहे हैं। यह जटिल प्रक्रिया है लेकिन तकनीक भी बेहतर होते गयी है, अब मानव को इन गतिविधियों का चक्र कुछ हद तक समझ मे आ गया है। हाल ही की जानकारीयों के अनुसार सूर्य के चुंबकिय क्षेत्र की हलचलें अब शांत हो रही है।
सौर ज्वाला की दो क्रमिक तस्वीर
सौर ज्वाला की दो क्रमिक तस्वीर
सूर्य पर एक पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली एक गैस की नदी है जो सतह के निचे बहती है। इसे देखा नही जा सकता है लेकिन यह सतह के निचे बहते हुये एक ध्वनि उत्पन्न करती है, जिससे इसकी उपस्थिति पता चलती है। यह नदी बनती और विलुप्त होते रहती है लेकिन सामान्यतः यह सूर्य के मध्य अक्षांशो पर बनती है और सौर चक्र के साथ सूर्य के विषुवत की ओर विस्थापित होते रहती है। इस नदी के उपर सौर धब्बो का निर्माण होता है। सौर धब्बो का अगला चक्र अगले कुछ वर्षो मे प्रारंभ होगा लेकिन इस नदी का निर्माण अब तक प्रारंभ हो जाना चाहिये। अब तक इस नदी के निर्माण के कोई संकेत नही मिले है, जिससे वैज्ञानिको को लग रहा है कि अगला सौर चक्र विलंब से प्रारंभ होगा।
वैज्ञानिको के अनुसार चुंबकिय सौर धब्बो की औसत क्षमता भी पिछले वर्षो मे कम हो रही है। सौर धब्बो का निर्माण सूर्य के चुंबकिय क्षेत्र के सतह के उपर आ जाने से होता है। सामान्यतः सूर्य के आंतरिक भाग से उठने वाली गैस ठंडी होकर वापिस निचे जाती है, लेकिन चुंबकिय क्षेत्र से प्रतिक्रिया करने के कारण यह ठंडी गैस निचे नही जा पाती है। ठंडी गैस की चमक कम होती है, इसलिये इस ठंडी गैस के क्षेत्र को हम एक गहरे रंग के धब्बे के रूप मे देखते है।(ध्यान दे यह ठंडी गैस भी हजारो डीग्री सेल्सीयस का तापमान लिए होती है।)
सौर धब्बे मूलभूत तरीके से चुंबकिय प्रक्रिया से निर्मित होते है,इस लिए चुंबकिय क्षेत्र की क्षमता मे कमी यह दर्शाती है अगला सौर चक्र विलंब से आयेगा या नही आयेगा।
सौर धब्बे का एक चित्र
सौर धब्बे का एक चित्र
सौर चक्र मे विलंब/कमजोर होने का तीसरा प्रमाण भी है। सूर्य का एक वातावरण है जिसे कोरोना(सौर प्रभा) कहते है जो कि अत्याधिक गर्म प्लाज्मा की एक पतली तह के रूप मे है। कोरोना भी चुंबकिय क्षेत्र से प्रभावित होता है। हर सौर चक्र मे कोरोना की चुंबकिय गतिविधियाँ सूर्य के विषुवत पर निर्मित होती है तथा धीमे धीमे अगले कुछ वर्षो मे ध्रुवो की ओर बढ़ती है। कोरोना के चुंबकिय क्षेत्रो का ध्रुवो की ओर बढ़ना इस वर्ष(2010-2011) काफी कमजोर है। इसका अर्थ यह है कि 2013 का चरम, सही अर्थो मे चरम नही होगा। अभी यह स्पष्ट नही है कि अगले चक्र पर इसका क्या परिणाम होगा?
इन सब घटनाओं का पृथ्वी पर तथा मानवों पर क्या परिणाम होगा ? यह कहना कठिन है! कुछ अर्थो मे यह एक अच्छी खबर है क्योंकि सूर्य की चरम की गतिविधियोँ से जो सौर ज्वालायें तथा सौर वायु प्रवाहित होती है उससे हमारे उपग्रह प्रवाहित होते है, विद्युत ग्रीड बंद हो जाती है। कमजोर चक्र मे यह सब नही होगा।
लेकिन सत्रहवी सदी के अंत तथा अठारहवी सदी के प्रारंभ मे युरोप मे एक लघु हिमयुग आया था, उस समय भी सूर्य पर सौर धब्बो की संख्या मे कमी आ गयी थी।(उस समय सौर धब्बे की संख्या शुन्य तक जा पहुंची थी)। सौर धब्बो की संख्या और हिम युग के मध्य संबध अभी तक साफ नही है क्योंकि उस समय उत्तर अमरीका मे भी जलवायु संबधित परेशानियाँ थी लेकिन युरोप के जैसे नही। युरोप मे सर्दीयों ने कहर बरपाया था लेकिन गर्मियों मे गर्मी भी कड़ाके की थी। उस समय इस विषम जलवायु के और भी कारक थे जैसे ज्वालामुखी विस्फोट तथा कमजोर जेट वायु धारायें। जेट वायु धारायें पृथ्वी के उपरी वातावरण मे ओजोन के निर्माण से बनती है,उस समय ओजोन का निर्माण कम हुआ था क्योंकि ओजोन सौर वायु के पृथ्वी के वातावरण से क्रिया करने से बनती है।  सौर गतिविधियोँ मे कमी से सौर वायु कम मात्रा मे प्रवाहित हुयी थी।
ध्यान दें कि यह सभी संकेत सूर्य के चुंबकिय क्षेत्र पर लम्बे समय तक के प्रभाव के बारे मे कुछ नही कह रहे हैं; यह 2013 मे सौर गतिविधियोँ के चरम को कमजोर बता रहे है तथा अगले चरम मे विलंब दर्शा रहे है। उसके बाद क्या होगा कोई नही जानता है।
इस कमजोर सौर चक्र के द्वारा अगले लघु हिमयुग के आने की संभावना नही है लेकिन यह दर्शाता है कि कमजोर सौर गतिविधियों के गंभीर परिणाम हो सकते है, जिसका पुर्वानुमान लगाना कठिन है। यहाँ पर स्पष्ट कर दे कि ’वैश्विक जलवायु परिवर्तन(Global Climate Change)’ के लिए सूर्य या सौर गतिविधियाँ उत्तरदायी नही है। यह गतिविधियाँ वैश्विक जलवायु परिवर्तन को थोड़ी या ज्यादा मात्रा मे प्रभावित कर सकती है लेकिन इसके लिये पूर्णतः उत्तरदायी नही है। यदि ऐसा होता तो हम जलवायु तथा सौर गतिविधियों के मध्य हर दशक के लिए एक संबंध देखते। लेकिन ऐसा नही है, जिसका अर्थ है कि ’वैश्विक जलवायु परिवर्तन(Global Climate Change)’ के लिए सूर्य उत्तरदायी नही है।
मुद्दा यह है कि सूर्य काफी जटिल है और हम हाल मे ही उसके बारे मे कोई पूर्वानुमान लगा पा रहे है। यह पूर्वानुमान भी सही हो जरूरी नही है लेकिन इस बार तीन भिन्न भिन्न प्रमाण है जो संकेत दे रहे है कि सौर चक्र कमजोर है। आशा है कि यह सही हो, मेरी आशा इसलिए नही है कि हम एक कमजोर सौर चक्र देखेंगे। मेरी आशा इसलिए है कि हम अपने सबसे समीप के तारे को समझना प्रारंभ करेंगें। जब यह कर पायेंगे तब हम भविष्य मे  सूर्य के द्वारा की गयी किसी भी विनाशकारी गतिविधी के लिए तैयार रहेंगे!

श्याम विवर (Black Hole) क्या है?: ब्रह्माण्ड की संरचना भाग 12


श्याम वीवर
श्याम वीवर
श्याम विवर (Black Hole) एक अत्याधिक घनत्व वाला पिंड है जिसके गुरुत्वाकर्षण से प्रकाश किरणो का भी बच पाना असंभव है। श्याम विवर मे अत्याधिक कम क्षेत्र मे इतना ज्यादा द्रव्यमान होता है कि उससे उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण किसी भी अन्य बल से शक्तिशाली हो जाता है और उसके प्रभाव से प्रकाश भी नही बच पाता है।
श्याम विवर की उपस्थिति का प्रस्ताव 18 वी शताब्दी मे उस समय ज्ञात गुरुत्वाकर्षण के नियमो के आधार पर किया गया था। इसके अनुसार किसी पिंड का जितना ज्यादा द्रव्यमान होगा या उसका आकार जितना छोटा होगा, उस पिंड की सतह पर उतना ही ज्यादा गुरुत्वाकर्षण बल महसूस होगा। जान मीशेल तथा पीयरे सायमन लाप्लास दोनो ने स्वतंत्र रूप से कहा था कि अत्याधिक द्रव्यमान या अत्याधिक लघु पिंड के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से किसी का भी बचना असंभव है, प्रकाश भी इससे बच नही पायेगा।
इन पिंडो को ’श्याम विवर(Black Hole)’ नाम जान व्हीलर ने 1967 मे दिया था। भौतिक विज्ञानीयों तथा गणितज्ञों ने यह पाया है कि श्याम विवर के पास काल और अंतराल(Space and Time) के विचित्र गुणधर्म होते हैं। इन विचित्र गुणधर्मो की वजह से श्याम विवर विज्ञान फतांसी लेखको का पसंदीदा रहा है। लेकिन श्याम विवर फतांसी नही है। श्याम विवर का आस्तित्व है और जब भी एक महाकाय तारे की मृत्यु होती है एक श्याम विवर का जन्म होता है। यह महाकाय तारे अपनी मृत्यु के पश्चात श्याम विवर बन जाते है। हम श्याम विवर को नही देख सकते है लेकिन उसमे गुरुत्वाकर्षण के फलस्वरूप उसमे गिरते द्रव्यमान को देख सकते है। इस विधि से खगोल वैज्ञानिको ने अब तक ब्रह्माण्ड का निरीक्षण कर सैकड़ो श्याम विवरो की खोज की है। अब हम जानते है कि हमारा ब्रह्माण्ड श्याम विवरो से भरा पड़ा है और उन्होने ब्रह्माण्ड को आकार देने मे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
क्या श्याम विवर भौतिकी के नियमो का पालन करते है ?
श्याम विवर भौतिकी के सभी नियमों का पालन करते हैं। उसके विचित्र गुणधर्म गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के फलस्वरूप उत्पन्न होते है।
1679 मे आइजैक न्युटन ने प्रमाणित किया था कि ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण से आकर्षित होते है। गुरुत्वाकर्षण भौतिकी के सभी मूलभूत बलो मे सबसे कमजोर बल है। हमारे दैनिक जीवन मे प्रयुक्त होने वाले अन्य बल जैसे विद्युत, चुंबकत्व इससे कहीं ज्यादा शक्तिशाली है। लेकिन गुरुत्वाकर्षण हमारे ब्रह्माण्ड को आकार देता है क्योंकि यह खगोलिय दूरीयोँ पर भी प्रभावी है। उदाहरण के लिए इस बल के प्रभाव से चन्द्रमा ग्रहों की ,ग्रह सूर्य की तथा सूर्य आकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है।
किसी भारी पिंड द्वारा काल-अंतराल मे लायी गयी विकृति(गुरुत्वाकर्षण)
किसी भारी पिंड द्वारा काल-अंतराल मे लायी गयी विकृति(गुरुत्वाकर्षण)
अल्बर्ट आइंस्टाइन ने अपने साधारण सापेक्षतावाद के सिद्धांत के द्वारा हमारे गुरुत्वाकर्षण के ज्ञान को उन्नत किया। उन्होने सिद्ध किया कि प्रकाश एक सीमित गति अर्थात लगभग 3 लाख किमी/सेकंड की गति से चलता है। इसका अर्थ यह है कि काल और अंतराल(Space and Time) एक दूसरे से संबधित हैं। 1915 मे उन्होने सिद्ध किया कि भारी पिण्ड अपने आसपास के 4 आयाम वाले काल-अंतराल को विकृत करते है, यह विकृति हमे गुरुत्वाकर्षण के रूप मे दिखायी देती है। जैसे किसी चादर पर एक भारी लोहे की गेंद रख दे तो वह चादर को विकृत कर देती है, अब उसके पास कंचो को बिखरा दे तो वे उस गेंद की परिक्रमा करते हुये अंत मे गेंद के पास पहुंच जाते है। यहां चादर अंतराल(Space) है, गेंद एक भारी पिंड और चादर मे आयी विकृति गुरुत्वाकर्षण बल। (4 आयाम : लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई और समय)
आइंस्टाइन के पूर्वानुमानो को परखा जा चूका है और विभिन्न प्रयोगो से प्रमाणित किया गया है। अपेक्षाकृत कमजोर गुरुत्वाकर्षण बल जैसे पृथ्वी पर आइन्स्टाइन और न्युटन के पूर्वानुमान समान है। लेकिन मजबूत गुरुत्वाकर्षण जैसे श्याम विवर के पास मे आइन्स्टाइन के सिद्धांत से कई नये विचित्र अद्भुत तथ्यो की जानकारी प्राप्त हुयी है।
श्याम विवर का आकार कितना होता है ?
श्याम विवर का आकार
श्याम विवर का आकार
श्याम विवर के अंदर सारा द्रव्यमान एक अत्यधिक छोटे बिन्दू नुमा क्षेत्र मे सीमित होता है जिसे केन्द्रीय सिंगयुलैरीटी(Central Singularity) कहते है। घटना-क्षितिज(Event Horizon) श्याम विवर को घेरे हुये एक काल्पनिक गोला है जो श्याम विवर के पास जा सकने की सुरक्षित सीमा दर्शाता है। घटना क्षितीज को पार करने के बाद वापसी असंभव है, इस सीमा के बाद आप श्याम विवर के गुरुत्वाकर्षण की चपेट मे आकर केन्द्रिय सिंगयुलैरीटी मे समा जायेंगे। घटना-क्षितिज की त्रिज्या को जर्मन वैज्ञानिक स्क्वार्ज्सचील्ड के सम्मान मे स्क्वार्ज्सचील्ड त्रिज्या (Schwarzschild radius)कहते है।
घूर्णन करता श्याम विवर
घूर्णन करता श्याम विवर
स्क्वार्ज्सचील्ड त्रिज्या श्याम विवर के द्रव्यमान के अनुपात मे होती है। खगोल वैज्ञानिको ने स्क्वार्ज्सचील्ड त्रिज्या 6 मील से लेकर हमारे सौर मंडल के आकार तक की पायी है। लेकिन सैद्धांतिक रूप से श्याम विवर इस सीमा से छोटे और बड़े भी हो सकते है। तुलना के लिए यदि पृथ्वी के सारे द्रव्यमान को दबा कर एक कंचे के आकार का कर दे तो वह श्याम विवर बन जायेगी। आप अनुमान लगा सकते है कि श्याम विवर मे पदार्थ किस दबाव मे और कितने ज्यादा घनत्व का होता है। किसी श्याम विवर का अत्याधिक द्रव्यमान का होना आवश्यक नही है, आवश्यक है उसका अत्याधिक घनत्व का होना। सूर्य के द्रव्यमान के लिए यह सीमा 3 किमी है, अर्थात सूर्य के सारे द्रव्यमान को संकुचित कर 3 किमी त्रिज्या मे सीमित कर दे तो वह श्याम विवर मे परिवर्तित हो जायेगा। ध्यान दे सूर्य की त्रिज्या लगभग 700,000 किमी है।
कुछ श्याम विवर अपने अक्ष(axis) पर घूर्णन भी करते है और स्थिति को ज्यादा जटिल बनाते है। घूर्णन के साथ आसपास का अंतरिक्ष भी आसपास खिंचा जाता है, जिससे एक खगोलीय भंवर का निर्माण होता है। इस अवस्था मे सिंगयुलैरीटी एक बिंदू की जगह एक बेहद पतला वलय(ring) होती है। इस मे एक काल्पनिक गोले की बजाये दो घटना क्षितिज होते है। इनके अतिरिक्त एक अर्गोस्फीयर (Ergosphere)नामक क्षेत्र होता है जो की स्थायी सीमा से बंधा होता है। इसमे फंसा पिंड श्याम विवर के घूर्णन के साथ घूमता रहता है, सैधांतिक रूप से वह श्याम विवर के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो सकता है।
कितनी तरह के श्याम विवर संभव है ?
अतिभारी श्याम विवर(Supermassive Black Hole) आकाशगंगा के केन्द्र मे होते है। बड़ी आकाशगंगा मे बड़ा श्याम विवर होता है।
अतिभारी श्याम विवर(Supermassive Black Hole) आकाशगंगा के केन्द्र मे होते है। बड़ी आकाशगंगा मे बड़ा श्याम विवर होता है।
श्याम विवर सामान्यतः एक दूसरे से भिन्न लगते है। लेकिन यह उनके आसपास के क्षेत्रो की भिन्नता के कारण होता है। सभी श्याम विवर एक जैसे होते है, उनके तीन विशिष्ट गुणधर्म होते है:
  1. श्याम विवर का द्रव्यमान (कितनी मात्रा पदार्थ से वह निर्मित है)।
  2. घूर्णन (वह घूर्णन कर रहा है अथवा नही ?,उसके अपने अक्ष पर घूर्णन की गति)।
  3. उसका विद्युत आवेश
विचित्र रूप से श्याम विवर हर निगले गये पिंड के बाकी सभी जटिल गुणधर्मो को मिटा देते है।
खगोलविद किसी श्याम विवर के द्रव्यमान की गणना उसकी परिक्रमा करते पदार्थ के अध्यन से कर सकते है। अभी तक दो तरह के श्याम विवर ज्ञात हुये है।
  1. तारकीय द्रव्यमान वाले श्याम विवर(Stellar Mass) - श्याम विवर जिनका द्रव्यमान सूर्य से कुछ गुणा ज्यादा हो
  2. अतिभारी श्याम विवर(Super Massive Black Hole) - किसी छोटी आकाशगंगा के द्रव्यमान के तुल्य
हाल के कुछ अध्यनो से ज्ञात हुआ है कि इन दो श्याम विवरो के वर्गो के मध्य द्रव्यमान के भी श्याम विवर हो सकते है।
श्याम विवर एक अक्ष पर घूर्णन कर सकते है, उसकी घूर्णन गति एक विशिष्ट सीमा को पार नही कर सकती है। खगोलविद मानते है कि श्याम विवर को घूर्णन करना चाहिये क्योंकि श्याम विवर जिन पिंड (तारो) से बनते है वे भी घूर्णन करते है। हाल के कुछ निरिक्षण इस पर कुछ प्रकाश डाल रहे है लेकिन सभी वैज्ञानिक इस पर एक मत नही है। श्याम विवर विद्युत आवेशीत भी हो सकते है। लेकिन इस अवस्था मे विपरीत आवेश के पदार्थ को आकर्षित कर और उसे निगल कर तेजी से उदासीन हो जायेंगे, इसकारण वैज्ञानिक मानते है कि ब्रह्माण्ड के सभी श्याम विवर विद्युत उदासीन(Neutral) होते है।

Wednesday, June 22, 2011

अग्निहोत्र का ब्रह्माण्ड के सृजन सिद्धान्त से सम्बन्ध

अग्निहोत्र के कर्मकाण्ड की व्याख्या वर्तमान समय के भौतिक विज्ञान में बिग बैंग(आरम्भिक महान विस्फोट द्वारा इस ब्रह्माण्ड का सृजन) द्वारा भी की जा सकती है इस सिद्धान्त के अनुसार आरम्भ में केवल ऊर्जा थी जिसमें कोई भयंकर विस्फोट हुआ और उससे सारी ऊर्जा द्रव्य के रूप में घनीभूत हो गई विस्फोट क्यों हुआ, यह किसी को पता नहीं है न्यूटन के काल से ही यह माना जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड अचर/अप्रगामी/स्तब्ध है क्योंकि आकाश में तारे प्रतिदिन ज्यों के त्यों दिखाई देते हैं । आइन्स्टीन ने गणित के माध्यम से इस तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया लेकिन सन् १९३६ के आसपास गेमोव तथा अन्य ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यह ब्रह्माण्ड अचर नहीं है, अपितु लगातार प्रसार कर रहा है और वर्तमान काल में इसकी पुष्टि हो रही है कि यही वास्तविक तथ्य है हाल के वर्षों में श्री जे.ए.गोवान ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि आरम्भ में प्रकाश की गति से प्रसरण कर रहे ब्रह्माण्ड को द्रव्य के रूप में संकुचित होने की आवश्यकता क्यों पडी श्री गोवान का कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इसके द्वारा ऊर्जा अपने को अधिक काल तक सुरक्षित रख सकती है श्री गोवान ने ऊर्जा के इस रूपान्तरण के जो परिणाम निकाले हैं, वह इस प्रकार से हैं :
          श्री गोवान ने अपनी मान्यता को पुष्ट करने के लिए जिन नियमों को आधार बनाया है, उनमें से एक नोएथर नियम है जिसका प्रतिपादन सन् १९१८ के लगभग श्रीमती नोएथर ने किया था इस सिद्धान्त के अनुसार किसी तन्त्र की सममिति एक स्थिरांक है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता यदि उस तन्त्र को विभिन्न अवयवों में तोड दिया जाए तो कुल मिलाकर उन अवयवों की सममिति अपरिवर्तनीय रहेगी बिग बैंग से पहले केवल ऊर्जा विद्यमान थी, द्रव्य नहीं और प्रकाश ऊर्जा का यह गुण है कि यह प्रकाश की गति से चारों ओर प्रसरण करती है अतः इस ऊर्जा को सममित कहा जाता है, क्योंकि यह किसी दिशा विशेष से रहित है जब बिग बैंग के पश्चात् द्रव्य का निर्माण हुआ तो उसमें भी यह सममिति स्थिर रहनी चाहिए लेकिन यह सर्वविदित है कि द्रव्य सममित नहीं है प्रकाश की भांति द्रव्य की गति चारों दिशाओं में एक साथ नहीं हो सकती, केवल एक दिशा में ही हो सकती है सममिति को स्थिर रखने के लिए प्रतिद्रव्य की कल्पना करनी पडी है कि इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त एक प्रति - ब्रह्माण्ड भी है जिसकी सममिति इस ब्रह्माण्ड की सममिति से उलटी है लेकिन श्री गोवान के अनुसार द्रव्य में भी सममिति की झलक गुरुत्वाकर्षण के रूप में विद्यमान रहती है इसके अतिरिक्त, द्रव्य में जो उसके इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि अवयवों के रूप में आवेश विद्यमान होता है, वह भी उसी आरम्भिक सममिति का अवशिष्ट हैं ।
          श्री गोवान ने गुरुत्वाकर्षण के एक और तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है और वह यह कि गुरुत्वाकर्षण का गुण आकर्षण का है वास्तव में यह उस आकाश को ग्रस रहा है जिसका सृजन प्रकाश ऊर्जा अपने प्रसरण द्वारा कर रही है आभासी रूप में हमें इसका आभास इस प्रकार होता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का आकर्षण करता है यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रकाशीय ऊर्जा के प्रसरण के वेग c को श्री गोवान ने एण्ट्रापी/अव्यवस्था की एक प्रमाप के रूप में ग्रहण किया है ( श्री गोवान के शब्दों में एण्ट्रांपी ड्राइव) गुरुत्वाकर्षण इस अव्यवस्था में ह्रास लाता है
          श्री गोवान ने अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए दूसरा आधार ऊर्जा के परिमाण की स्थिरता को बनाया है प्रकाश की ऊर्जा उसकी आवृत्ति पर निर्भर करती है( E = hv) जहां v प्रकाश की तरंग की आवृत्ति है दूसरी ओर, द्रव्य का ऊर्जा परिमाण उसकी मात्रा तथा वेग पर निर्भर करता है द्रव्य की ऊर्जा के संदर्भ में आइन्स्टीन ने जो समीकरण दी है, वह E = mc है जहां m द्रव्य की मात्रा है तथा c वह अधिकतम वेग है जो द्रव्य अर्जित कर सकता है इसकी अधिकतम सीमा प्रकाश का वेग है
          ऊर्जा के द्रव्य में परिणत होने का एक परिणाम काल के प्राकट्य के रूप में होता है ऊर्जा में काल केवल अप्रत्यक्ष रूप में उसकी आवृत्ति में विद्यमान है लेकिन द्रव्य में यह प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होता है क्योंकि द्रव्य का ऊर्जा परिमाण वेग( दूरी/काल) पर निर्भर करता है एण्ट्रांपी नियम की यह मांग है कि प्रकाश की भांति काल प्रभावी रूप से अनंत वेग से चारण करे काल से कार्य - कारण का जन्म होता है जिसके अनुसार किसी कार्य के पीछे एक कारण विद्यमान होता है काल का चारण केवल भविष्य की दिशा में ही है, भूत की दिशा में नहीं कारण कार्य को प्रभावित कर सकता है, कार्य कारण को नहीं ( इस विषय में इण्टरनेट पर विस्तृत विवाद उपलब्ध हैं )
          द्रव्य के प्राकट्य से सूचना के तन्त्र का सृजन हुआ है जिसे आज हम कम्प्यूणर युग के रूप में देख रहे हैं । केवल द्रव्य में ही सूचना को एकत्र किया जा सकता है, शुद्ध ऊर्जा में नहीं (?)
          श्री गोवान का कहना है कि इस पृथिवी पर रहकर हम केवल ऊर्जा के द्रव्य में परिणत होने की कल्पना करते हैं । लेकिन जब द्रव्य का घनत्व बहुत अधिक हो जाता है तो द्रव्य फिर ऊर्जा में परिणत होने लगता है, जैसा कि सूर्य पर होता है पृथिवी का घनत्व चूंकि कम है, अतः दूसरी घटना यहां नहीं घट पाती
          इस भूमिका के पश्चात् अब हम वास्तविक लक्ष्य अग्निहोत्र पर आते हैं । अग्निहोत्र का कर्मकाण्ड प्रतिदिन दिन और रात्रि के घटित होने पर आधारित है अध्यात्म में यह दिन और रात्रि किस प्रकार घटित हो सकते हैं, यह अन्वेषणीय है। दिन सूर्य है और रात्रि पृथिवी सूर्य प्राणों का बृहत् रूप है जबकि पृथिवी हमारी देह का । हमारे शीर्ष प्राण सूर्य के निकटतम हैं । अतः यह देखना होगा कि अग्निहोत्र के शास्त्रीय कर्मकाण्ड का हमारे शीर्ष प्राणों के उदय - अस्त होने से कितना तादात्म्य है जैमिनीय ब्राह्मण .७ का कथन है कि सायंकाल अस्त होने पर सूर्य प्रकार से अपने को छिपाता है ब्राह्मण में यह श्रद्धा के रूप में प्रवेश करता है, पशुओं में पयः के रूप में, अग्नि में तेज के रूप में, ओषधियों में ऊर्क् के रूप में, आपः में रस रूप में और वनस्पतियों में स्वधा के रूप में यह कहा जा सकता है कि श्रद्धा, पयः आदि का अध्यात्म में वही स्थान है जो द्रव्य में विद्यमान सममित आवेश का, जो श्री गोवान के अनुसार नष्ट हुई सममित ऊर्जा की सममिति का अवशिष्ट है ऐसा अनुमान है कि उपरोक्त द्रव्यों के अभाव को ही जैमिनीय ब्राह्मण .३६३ में पाप कहा गया है यह पाप हैं - स्वप्न, तन्द्री, मन्यु, अशना, अक्षकाम्या और स्त्रीकाम्या श्रद्धा( शृतं दधाति इति, जो पके हुए को धारण करता है ) के अभाव के परिणामस्वरूप अचेतन मन से स्वप्न उत्पन्न होते हैं । पयः के अभाव का परिणाम तन्द्री कहा गया है तन्द्री का अर्थ है - आलस्य, काम करने में शिथिलता जैसा कि पयः शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, पयः का प्रादुर्भाव तब होता है जब कोई तनाव विद्यमान हो वनस्पतियों का पयः गुरुत्वाकर्षण आदि तनावों के कारण काष्ठ में परिणत हो जाता है पयः को सुरक्षित रखने के लिए बीज अपने ऊपर मोटा आवरण बनाते हैं, तब पयः को सुरक्षित रख पाते हैं । केवल पशुओं में पयः की विद्यमानता कही गई है वही स्तनधारी होते हैं । तन्द्री शब्द को तन्त्री शब्द का अपभ्रंश माना जा सकता है जहां तन्त्र शिथिल हो गया हो, वह तन्द्री है तेज के अभाव का परिणाम मन्यु( मज्जा में उत्पन्न होने वाला क्रोध) है यदि मन्यु की ऊर्जा का सम्यक् उपयोग किया गया होता तो वह तेज रूप में परिणत हो सकता था ओषधियों में ऊर्क् के अभाव का परिणाम अशना, भोजन की इच्छा है आपः में रस के अभाव का परिणाम अक्षकाम्या अर्थात् अक्षों, इन्द्रियों द्वारा रसों को ग्रहण करना है वनस्पतियों में स्वधा के अभाव का परिणाम स्त्रीकाम्या कहा गया है वनस्पतियों की विशेषता यह होती है कि उनकी किसी शाखा को भंग कर देने पर वह पुनः अंकुरित हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि वनस्पतियों में स्टेम कोशिकाएं होती हैं जो तुरन्त नवनिर्माण कर सकती हैं । पशुओं या मनुष्यों के अंगों में स्टेम कोशिकाएं सीमित मात्रा में ही रह जाती हैं, जैसे नासिका आदि में इस कारण एक बार अंग भंग हो जाए तो वह पुनः उत्पन्न नहीं हो पाता वैदिक साहित्य के अनुसार यह अपेक्षित है कि प्रत्येक अंग में स्टेम कोशिकाओं का निर्माण होना संभव बनाया जाए वनस्पतियों के स्वधा गुण की प्राप्ति समित् चयन द्वारा की जाती है कहा गया है कि ब्रह्मचारी अपने गुरु के लिए वन से समित् का आहरण करता है जिससे गुरु समित् द्वारा यज्ञ कर सके यह समित् सममित स्थिति हो सकती है जो स्टेम कोशिकाओं का निर्माण करती होगी
          जैमिनीय ब्राह्मण में जहां अस्त होता सूर्य अपने आपको प्रकार से अग्नि में छिपाता है, वहीं ब्रह्माण्ड पुराण में ब्रह्मा द्वारा चार प्रकार से इस जगत में छिपने का उल्लेख है स्थावरों में वह विपर्यास रूप में, तिर्यकों में शक्ति रूप में, मनुष्यों में बुद्धि और सिद्धि रूप में तथा देवों में वह पुष्टि रूप में छिपता है पुराणों के इस कथन से जैमिनीय ब्राह्मण के इस कथन पर प्रकाश पड सकता है कि अस्त होता हुआ सूर्य ब्राह्मणों में श्रद्धा रूप में छिपता है पुष्टि तब हो सकती है जब श्रद्धा में सत्य का प्रवेश हो केवल मात्र श्रद्धा असत्य आधार पर भी टिकी हो सकती है मनुष्यों में बुद्धि और सिद्धि की तुलना जैमिनीय ब्राह्मण में पशुओं में पयः के प्रवेश से की जा सकती है जैमिनीय ब्राह्मण में अग्निहोत्र के संदर्भ में ही पयः के श्रपण की विभिन्न अवस्थाओं का भी उल्लेख है, जैसे पहली अवस्था में पयः गौ के स्तनों में होता है दूसरी अवस्था में वह दुग्ध स्थिति में, तीसरी अवस्था में अग्नि पर श्रपण के कारण उष्ण स्थिति में, चौथी अवस्था में शर (दुग्ध के ऊपर मलाई) के रूप में इत्यादि इसकी चरम परिणति वाजपेय के रूप में कही गई है डा. फतहसिंह के अनुसार वाज वह अन्न या प्राण होता है जिसके द्वारा भूत और भविष्य, दोनों ओर की सूचनाएं प्राप्त हो सकती हैं । अतः जैमिनीय ब्राह्मण के पयः को पुराणों की बुद्धि और सिद्धि के तुल्य माना जा सकता है इसके पश्चात् जैमिनीय ब्राह्मण में सूर्य के अग्नि में तेज रूप में छिपने का उल्लेख है कहा गया है कि जो क्रोध है, वह लोहितकुल्या, लोहित की नदी है,जबकि तेज घृतकुल्या है क्रोध आने पर रक्त में उष्णता जाती है, जबकि तेज से प्रतीत होता है कि मज्जा या इसके समकक्ष किसी धातु में उष्णता आती होगी इससे अगली अवस्था सूर्य के ओषधियों में ऊर्क् के रूप में छिपने की है जिसकी व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है पांचवी अवस्था में सूर्य के आपः में रस रूप में छिपने का उल्लेख है इस को उच्च व्यवस्था की स्थिति अथवा न्यून एण्ट्रांपी की स्थिति कहा जा सकता है ब्राह्मण ग्रन्थों का कथन है कि जिसे शास्त्रीय भाषा में रथन्तर कहा जाता है, वह वास्तव में रसन्तमम् स्थिति है इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में रस का तादात्म्य रथ से है जैमिनीय ब्राह्मण में (विकसित होते हुए प्राणों की? ) रथ के कईं प्रकारों की कल्पना की गई है सबसे पहली स्थिति में अग्नि के रिहन्/लिहन् अवगुण को पार करना पडता है अग्नि का एक गुण है भस्म करना और दूसरा विपरीत गुण है अर्चि, चमकना रथ की दूसरी अवस्था धूम की है जिसमें वायु के अजिर( - जीव, ऐसे प्राण जो जीवन प्रदान कर सकें) अवगुण को पार करना पडता है रथ की तीसरी अवस्था रेष्मा कही गई है जिसमें आदित्य के म्रोvचन अर्थात् चमकने? के अवगुण को पार करना पडता है रथ की चौथी अवस्था रश्मि कही गई है जिसमें यम के अवत्स्यन् ? अवगुण को पार करना पडता है पांचवी अवस्था में प्रजापति के प्रभूमान् अवगुण को पार करने का उल्लेख है अन्तिम स्थिति - स्थावरों में विपर्यास/प्रति - सममिति की तुलना वनस्पतियों की स्वधा/समित् से की जा सकती है पुराणों में तो कथाएं आती हैं कि अमुक असुर के भय से यज्ञ में विद्यमान देव अलग - अलग वृक्षों में छिप गए वह वृक्ष उन - उन देवों के प्रिय बन गए
          जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अध्यात्म में अग्निहोत्र के घटित होने की प्रक्रिया को शीर्ष प्राणों के उदय - अस्त द्वारा समझा जा सकता है प्रतिदिन सोते समय शीर्ष प्राणों का अस्त हो जाता है यह प्रेक्षण का विषय है कि क्या हमारे शीर्ष प्राण अस्त होने पर वही प्रभाव उत्पन्न करते हैं जिनका उल्लेख जैमिनीय ब्राह्मण में किया गया है ? सबसे पहला घटक श्रद्धा/पुष्टि है जिसका विपरीत घटक स्वप्न है यह दोनों ही हमारे अन्दर घटित हो रहे हो सकते हैं । शीर्ष प्राण अस्त होने पर हमारी देह के अन्य प्राणों की पुष्टि करते होंगे दूसरा घटक पयः है जिसका विपरीत घटक तन्द्री/शिथिलता/तनाव है यह घटक भी अपने दोनों रूपों में विद्यमान होता होगा तीसरा घटक तेज है जिसका विपरीत घटक मन्यु कहा गया है चौथा घटक ऊर्क् है जिसका विपरीत घटक अशना है पांचवां घटक आपः में रस है जिसका विपरीत घटक अक्षकाम्या है छठां घटक स्वधा/समित्/सममिति है जिसका विपरीत घटक स्त्रीकाम्या है
          उपरोक्त विवेचन केवल अस्त होते हुए सूर्य के लिए है जैमिनीय ब्राह्मण में उदित होते हुए सूर्य का जो वर्णन है, वह भविष्य में अन्वेषणीय है जैमिनीय ब्राह्मण के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ प्राण तो ऐसे रहेंगे जिनका पूर्ण विकास नहीं हो पाएगा उन प्राणों पर अग्नि का आधिपत्य होगा कुछ प्राण पूर्ण विकसित होकर सूर्य का, अथवा कहा जाए कि हमारे सिर के प्राणों का रूप ले सकेंगे प्राणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं का उल्लेख ऊपर धूम, रेष्मा, रश्मि आदि के रूप में किया जा चुका है
          जैमिनीय ब्राह्मण में अग्निहोत्र के विद्वान् समझे जाने वाले कुछ ऋषियों का जनक/याज्ञवल्क्य से संवाद दिखाया गया है सबसे पहले गौतम का उल्लेख है जो यश के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी भी यश, आदित्य भी यश दूसरे स्थान पर आरुणि वाजसनेय का उल्लेख है जो सत्य के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी भी सत्य, आदित्य भी सत्य सत्य और श्रद्धा के सम्बन्ध का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है यह उल्लेखनीय है कि केवल अरुण अवस्था में, सूर्य के उदय काल की अवस्था में सत्यानृत का विवेक करना कठिन होता होगा और सारा अग्निहोत्र या तो सूर्य के उदय के काल से सम्बन्धित है, या अस्त काल से सूर्य की बीच की अवस्थाओं का अग्निहोत्र से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता । तीसरे स्थान पर प्रिय जानश्रुतेय(ज्ञानश्रुतेय?) का उल्लेख है जो तेज रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध का, तेज का उपयोग प्राणों को प्रिय रूप में रूपान्तरित करने में होना चाहिए, ऐसे प्राण जिनके बिना हम जीवित ही रह सकें चौथे स्थान पर बर्कुर /वृक वार्ष्णेय का उल्लेख है जो भूयः रूप में, वित्त रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । कहा जाता है कि १५ कलाएं वित्त हैं, जबकि १६वी कला स्वयं आत्मा है १५ कलाएं उसकी परिधियां हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि अग्निहोत्र में सूर्य की १३वी कला, चन्द्रमा की १६वी कलाओं आदि के महत्त्व को भी स्थान मिला है पांचवें स्थान पर बुडिल आश्वतराश्वि वैयाघ्रपद्य का उल्लेख है जो अर्क - अश्वमेध के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी अर्क है, सूर्य अश्वमेध है जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अर्क अवस्था अग्नि की चमकने वाली अवस्था है जो लिहन् अवस्था के विपरीत है बुडिल नाम का तात्पर्य बुड्ढ धातु के आधार पर बूढेपन को नियन्त्रित करने वाले के रूप में लिया जा सकता है इन पांच के उल्लेखों के पश्चात् जनक एक छठी स्थिति का उपदेश करते हैं जिसे इति और गति कहा गया है पृथिवी इति है, सूर्य गति है डा. फतहसिंह के अनुसार वैदिक साहित्य में गति ज्ञान के अर्थ में भी आता है ( गम् - ज्ञाने ) वर्तमान में इति शब्द की किसी व्याख्या के अभाव में इति को इतिहास रूप में समझ सकते हैं । इतिहास अर्थात् जहां कार्य - कारण व्यवस्था विद्यमान हो पृथिवी अपना अन्नाद्य भाग चन्द्रमा में कृष्ण रूप में स्थापित करती है सूर्य अपना अन्नाद्य भाग पृथिवी में ऊषर रूप में स्थापित करता है हो सकता है कि श्री गोवान ने पृथिवी द्वारा अपने गुरुत्वाकर्षण के माध्यम से ब्रह्माण्ड के विस्तार के ग्रसन का जो उल्लेख किया है, वह शास्त्रीय भाषा में इति के रूप में प्रकट हुआ हो
          जिस प्रकार भौतिक जगत में ऊर्जा का द्रव्य में और द्रव्य का ऊर्जा में रूपान्तरण चलता रहता है, वैसे ही अग्निहोत्र में भी प्रातः और सायंकालीन अग्निहोत्र में होता है प्रातःकालीन अग्निहोत्र कर्मकाण्ड में मुख्य रूप से जो मन्त्र बोला जाता है, वह इस प्रकार है : सूर्यो ज्योति: ज्योति: सूर्य: स्वाहा( वाक् द्वारा उच्च स्वर में ) और अग्निर्ज्योति: ज्योतिरग्निः स्वाहा ( मन द्वारा तूष्णीम् ) यह उल्लेखनीय है कि अग्निहोत्र के कर्मकाण्ड की ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध व्याख्या में मुख्य रूप से वाक् और मन को स्थान मिला है जबकि प्राण, मन और वाक् के त्रिक में प्राण को प्रायः पृष्ठभूमि में ही रख दिया गया है भौतिक आधार तो यह है कि अहोरात्र केवल सूर्य/प्राण और पृथिवी/देह/आत्मा की सापेक्ष गति के कारण घटित होते हैं । चन्द्रमा की गति तो केवल दर्श - पूर्णमास को प्रभावित करती है लेकिन अग्निहोत्र में यह आधार क्यों नहीं लिया गया है, इसका कारण है प्राण दो प्रकार के हैं - जाग्रत और सुप्त यदि जाग्रत प्राणों का सम्यक् उपयोग नहीं किया जाता तो यह प्राण क्रन्दन करने लगते हैं, रोने लगते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण में इस तथ्य को इस रूप में कहा गया है कि जो पशुओं को मारकर खाता है, दूसरे लोक में पशु रूपी पुरुष उस क्रन्दन करते हुए पुरुष को मारकर खाते हैं । इसी प्रकार यदि व्रीहि, यव आदि अन्न जिनमें प्राण सुप्त अवस्था में हैं, जो बोल नहीं सकते, यदि उनका भक्षण अयज्ञीय रूप से किया जाता है तो दूसरे लोक में वह व्रीहि - यव आदि पुरुष उसका तूष्णीं रूप में हनन करके भक्षण करते हैं । यदि ऐसे पाप घटित हो चुके हैं, तो उनका क्या प्रायश्चित्त है ? कहा गया है कि अग्निहोत्र में जो वाक् द्वारा उच्च स्वर से यजु बोला जाता है, वह क्रन्दन करने वाले प्राणों का प्रायश्चित्त है इसका अर्थ यह हुआ कि यदि जाग्रत प्राणों का उपयोग किसी प्रकार से वाक् को विकसित करने में, अपनी आत्मा की आवाज को विकसित करने में कर लिया जाए तो प्रायश्चित्त हो जाएगा इसी प्रकार जो प्राण सुप्त थे और उनका दुरुपयोग किया गया है तो उसका प्रायश्चित्त मन द्वारा तूष्णीं रूप में मन्त्र का उच्चारण करने में है इसका अर्थ यह हुआ कि जो सुप्त प्राण हैं, उनमें मन का, अचेतन मन का विकास कर लिया जाए तो प्रायश्चित्त हो जाएगा कहा गया है कि मन के अनुदिश प्राण हैं, वाक् के अनुदिश आत्मा है अतः यह कहा जा सकता है कि जब श्री गोवान द्रव्य को घनीभूत करके द्रव्य को पुनः प्रकाशीय ऊर्जा में रूपान्तरित करने की बात करते हैं तो अध्यात्म में इस द्रव्य को वाक् लिया जा सकता है इस वाक् या पृथिवी को घनीभूत कैसे किया जा सकता है कि नाभिकीय विखण्डन की प्रक्रिया घटित हो जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है पौराणिक साहित्य में कहा जाता है कि यह पृथिवी द्वेष आदि के कारण कटी - फटी है, इसे समतल बनाना है, पृथु बनाना है महाभारत में बक रूप धारी यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है यहां बक शुद्ध वाक् का विकृत रूप है जो संवाद के अन्त में अपना वास्तविक रूप यम या धर्म के रूप में प्रकट करता है यह भी जानना महत्त्वपूर्ण है कि बक रूपी वाक् का संवाद क्या मन रूपी युधिष्ठिर से होता है?
          सायंकालीन अग्निहोत्र में जिस मन्त्र का उच्चारण किया जाता है, वह है - अग्निर्ज्योति: ज्योतिरग्निः स्वाहा( वाक् द्वारा उच्च स्वर से ) और सूर्यो ज्योति: ज्योति: सूर्य: स्वाहा ( मन द्वारा तूष्णीं रूप में ) इस प्रकार अग्निहोत्र ऊर्जा के दो - तरफा रूपान्तरण का मार्ग प्रस्तुत करता है इस रूपान्तरण का लाभ यह बताया गया है कि इससे कार्य - कारण सिद्धान्त निरर्थक हो जाता है यह महत्त्वपूर्ण है कि अग्निहोत्र की व्याख्याओं में काल को प्रत्यक्ष रूप में कहीं स्थान नहीं मिल पाया है