Saturday, June 18, 2011

ब्रह्माण्ड के खुलते रहस्य 5: ब्रह्माण्ड का विकास

प्रसारी सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड का विकास कैसे होता है। इस सिद्धान्त के निर्माण के लिये कुछ मूलभूत मान्यताओं से प्रारम्भ करते हैं; कि एड्विन हबल के अभिरक्त विस्थापन के अवलोकनों के आधार पर ब्रह्माण्ड का प्रसार हो रहा है, तथा दूरी के अनुपात में तीव्रतर होता जाता है। प्रसारी सिद्धान्त के यह दो –अवरक्त विस्थापन तथा प्रसार – वे आधार स्तम्भ हैं जिन पर प्रसारी सिद्धान्त खड़ा है।

यह दो स्तम्भ स्वयं अन्य दो मान्यताओं के स्तंभ पर खड़े हैं कि ब्रह्माण्ड विशाल अर्थ में समांगी (होमोजीनियस) तथा समदैशिक (आइसोट्रोपिक) है। तथा यह स्थिति न केवल आज है वरन विस्फोट की अवधि में भी थी। इस में तथा स्थायीदशा सिद्धान्त की मान्यताओं में जो मुख्य अन्तर है वह यह कि ‘काल’ में प्रसारी सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड परिवर्तनीय है जबकि ‘स्थायीदशा’ में ‘काल’ में भी अपरिवर्तनीय है। इन सिद्धान्तों पर 1922 रूसी गणितज्ञ अलेक्सान्द्र फ्रीडमान ने कुछ गणितीय सूत्रों का निर्माण किया था जिनके द्वारा प्रसारी ब्रह्माण्ड की व्याख्या की जा सकती है। 1927 में बेल्जियन वैज्ञानिक लमेत्र ने इन सूत्रों के आधार पर उस मूल क्षण का आकलन किया जब उस “आद्य अणु” (ब्रह्म–अण्ड) ने विस्फोट कर प्रसार प्रारंभ किया था और अणु, मन्दाकिनियां तथा तारों आदि का निर्माण प्रारंभ हुआ था। इस ‘महान विस्फोट’ (यह नाम मजाक में फ्रैड हॉयल ने दिया था) के सिद्धान्त को ‘फ्रीडमान–ल मेत्र’ सिद्धान्त कहते हैं।

मूलभूत बल
ब्रह्माण्ड में केवल चार बल हैं जो मूलभूत माने जाते हैं – गुरुत्वाकर्षण, विद्युत चुम्बकीय, दुबर्ल एवं सशक्त नाभिक बल। विद्युतचुम्बकीय बल विद्युत, चुम्बकत्व तथा विद्युत चुम्बकीय विकिरण पर नियन्त्रण रखता है। दुबर्ल नाभिक बल अत्यन्त कम दूरियों पर ही प्रभावी होता है तथा रेडियो एक्टिव क्षय का नियन्त्रण करता है। सशक्त नाभिक बल नाभिक में प्रोटानों तथा न्युट्रानों को बांधकर रखता है। आइन्स्टाइन ने व्यापक आपेक्षिकी (सिद्धान्त) के उपरान्त शेष जीवन मुख्यतया इन्हीं चारों बलों को मूलरूप से एक ही सिद्ध करने के प्रयास में लगाया था। आज कल मूलभूत बलों की संख्या, सिद्धान्तत: तीन ही रह गई है, विद्युत चुम्बकीय तथा दुबर्ल नाभिक बलों में सिद्धान्तत: एकता स्थापित की जा चुकी है। यह चारों बल मूल ब्रह्म–अण्ड में एकीकृत रूप में रहते थे और सहज ही आपस में परिवर्तनशील रहते थे तथा इसी तरह पदार्थ तथा ऊर्जा आपस में पूर्ण रूप से परिवर्तनशील थे। पदार्थ तथा ऊर्जा की तुल्यता सिद्ध करने के लिये आइन्स्टाइन को 1921 में नोबेल पुरस्कार मिला।

‘महा एकीकरण युग’
आज अधिकांश वैज्ञानिक सहमत हैं कि मूल ब्रह्म–अण्ड का महान विस्फोट, ‘बिग बैंग,’ लगभग 1370 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था।

विस्फोट के शून्य सैकैण्ड से 10–43 सैकैण्ड तक क्या हुआ यह नहीं जाना जा सकता क्योंकि उस काल खण्ड में भौतिकी के ज्ञात नियम कार्य नहीं कर रहे थे। यह दृष्टव्य है कि विज्ञान ने इस ब्रह्माण्ड में पहली बार ‘कुछ’ तो अज्ञेय माना है क्योंकि अध्यात्म में ब्रह्म तो अज्ञेय ही है। विज्ञान में इसके पहले जो अज्ञेय थे वे सशर्त थे, यथा हाइज़ैनवर्ग का अनिधार्र्यता का नियम जिसके अनुसार स्थिति तथा वेग इन दोनों का साथ साथ निधार्रण एक सीमित याथार्थिकता के भीतर ही किया जा सकता है, यद्यपि किसी एक का वांछित याथार्थिता के साथ किया जाता है।

हाइजैनबर्ग के अनिधारर्यता सिद्धान्त के अतिरिक्त, प्रथम 10–45 सैकैण्ड भी अज्ञेय है, तथा समय को 5.4 × 10–44 सैकैण्ड, द्रव्य को 2.1 × 10–18 कि. ग्रा., तथा लम्बाई को 1.6 × 10–35 मीटर की याथार्थिकता से बेहतर नहीं नापा जा सकता। दूसरा अज्ञेय जो है वह है ‘सांख्यकी’ जिसमें घटनाओं के होने का निश्चित ज्ञान न होकर ‘संभाविता’ (जिसे प्रतिशत में अभिव्यक्त करते हैं) के रूप में होता है।

किन्तु 10–43 सैकैण्ड से लेकर 10–35 सैकैण्ड और और भी बाद तक ज्ञात नियम लग रहे थे जिनके तहत सभी पदार्थ, ऊर्जा, दिक् तथा काल का निर्माण हुआ था। इसलिये 5 × 10–44 सैकैण्ड को ‘प्लान्क समय’ (नियतांक) कहते हैं। इस समय ब्रह्माण्ड का विस्तार 1. 6 × 10–33 से. मी. (प्लान्क लम्बाई नियतांक) था तथा तापक्रम 1032 कैल्वियन था। अथार्त एकीकरण युग के प्रारम्भ में दिक का विस्तार 10–33 से. मी. था तथा तापक्रम 1032 कै. था।

उस समय तापक्रम लगभग एक लाख अरब अरब अरब कैल्वियन था। अथार्त ताप ही प्रमुख गुण था। शायद यही सत्य तैत्तिरीय उपनिषद के (3.2) मन्त्र में कहा गया है, “तपो ब्रह्मेति।” तप ही ब्रह्म है। सामान्यतया इसका अर्थ लिया जाता है कि तप करने से ब्रह्म का ज्ञान होता है। यहां मुझे लगता है कि ऋषि कह रहे हैं कि तप ही अथार्त ताप ही ब्रह्म है। तथा इसके बाद मुण्डक उपनिषद (1.1.8) के मन्त्र ‘तपसाचीयते ब्रह्म’ के अनुसार तप से ब्रह्माण्ड का विस्तार होता है। ‘महान एकीकरण युग’ के प्रारंभ होते ही गुरुत्वाकर्षण बल ने अलग हो कर अपना कार्य शुरु कर दिया था, किन्तु अन्य तीन बल एकीकृत होकर कार्य करते रहे।

एक सैकैण्ड के अकल्पनीय अतिसूक्ष्मतम अंश (10–43 सैकैण्ड से 10–35 सैकैण्ड तक) में पदार्थ तथा ऊर्जा सहज ही एक दूसरे में परिवर्तनशील थे, अत: एक सैकैण्ड के इस अकल्पनीय सूक्षमतम अंश को ‘महान एकीकरण युग’ (ग्रैन्ड युनिफिकेशन एरा) कहते हैं। छान्दोग्य उपनिषद (3.14.1) का एक मन्त्र है, सर्वं खलु इदं ब्रह्म। यह सृष्टि सब सचमुच में ब्रह्म ही है। इस ब्रह्माण्ड (सृष्टि) की उसी से उत्पत्ति होती है, उसी में इस ब्रह्माण्ड का लय होता है, और यह उसी से अनुप्राणित है। अथार्त इसमें पदार्थ तथा ऊर्जा की जो भिन्नता दिखती है, वह वास्तव में एक ही हैं, सारे पदार्थ जो भिन्न दिखते हैं एक ही हैं। और आज का विज्ञान जिसे उपरोक्त शैली में कहता है। इसमें जो शक्ति या बल या चेतना है, उसी से है। इसे उपरोक्त पैरा में विज्ञान की शैली ‘मूलभूत बल’ कहा गया है। बल वास्तव में वे नियम हैं जिनके अनुसार पदार्थ तथा ऊर्जा व्यवहार करते हैं। यह नियम, जिसे संस्कृत में ऋत कहते हैं, भी उसी ब्रह्म से उपजे हैं।

छान्दोग्य उपनिषद में ही ब्रह्म के विषय में कहा है (6.2.1), “एकमेव अद्वितीयम्’ –वह एक ही है, उसके अतिरिक्त ब्रह्माण्ड में दूसरा नहीं है – यही सत्य वैज्ञानिक भाषा में ‘महान एकीकरण युग’ में 10–45 सैकैण्ड्स के पूर्व मिलता है। और भी छान्दोग्य (6.2.3) में कहा है, “तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति। "उस सत् अथवा ब्रह्म ने इच्छा की कि ‘मैं बहुत हो जाऊं’। यही सत्य तैत्तिरीय उपनिषद (2.6) में कहा है। यही कार्य 10–45 सैकैण्ड के बाद प्रारम्भ हुआ।

यह कहा जा सकता है कि वह सूक्ष्म ब्रह्माण्ड क्वार्कों तथा प्रतिक्वार्कों आदि के गाढ़े गरमागरम रस से सराबोर था। आज वैज्ञानिक क्वार्क तथा लैप्टॉन को पदार्थ के मूलभूत कण मानते हैं। क्वार्क द्वारा भारी कण, यथा प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन बनते हैं, तथा लैप्टॉन से इलैक्ट्रॉन तथा न्यूiट्रनो आदि हल्के कण बनते हैं। उस युग में इनके साथ इनके विरोधी कण भी होते थे – ‘प्रतिक्वार्क‘ तथा ‘प्रतिलैप्टॉन’ आदि। कण तथा प्रतिकण उस समय आपस में टकराते और प्रकाश ऊर्जा में बदल जाते थे, तथा दो फोटान (प्रकाश कण) कण आपस में टकराकर पदार्थ तथा प्रतिपदार्थ उत्पन्न करते थे। क्वार्क तथा लैप्टान भी आपस में बदल सकते थे। प्रारंभ में पदार्थ, प्रतिपदार्थ तथा विकिरण (ऊर्जा) लगभग बराबर मात्रा में थे। और अब तो प्रतिपदार्थ के दर्शन नहीं होते। महान एकीकरण युग के अन्त के थोड़ा सा पहिले पदार्थ की मात्रा प्रति पदार्थ की मात्रा से, अति नगण्य रूप में ही सही, किन्तु अधिक थी। विस्तार के साथ तापक्रम कम हुआ और तब पदार्थ तथा प्रतिपदार्थ तो टकराए और प्रकाश ऊर्जा में बदल गए। किन्तु फोटानों ने आपस में टकराकर पदार्थ तथा प्रतिपदार्थ बनाना बन्द कर दिया। अतएव जब क्वार्क तथा प्रतिक्वार्क टकराते हैं तब अधिकांश पदार्थ तो ऊर्जा में बदल जाता है; किन्तु थोड़ा सा क्वार्क बच जाता है, जो ‘हेड्रान’ में बदल कर प्रोटान जैसा भारी कण बनता है। इस समय पदार्थ की तुलना में ऊर्जा की मात्रा करोड़ों गुना अधिक थी।सम्भवत: यह वही बचे हुए पदार्थ थे जो आज हमें ब्रह्माण्ड में दिख रहे हैं। दृष्टव्य है कि जैसे जैसे ब्रह्माण्ड का विस्तार होता है, उसका तापक्रम कम होता है, तथा बलों एवं पदार्थों की विविधता बढ़ती जाती है।

‘स्फीति युग’
10–35 सैकैण्ड के तरन्त बाद प्रसार के वेग में अत्य्धिक वृद्धि हुई। इस स्फीति युग में, प्रसारी सिद्धान्त के अनुसार पर्याप्त मात्रा में ‘शून्य–ऊर्जा घनत्व’ का अस्तित्व था। इस स्फीति युग के पश्चात प्रसार की गति कम हुई किन्तु प्रसार होता रहा है। प्रसार के कारण ब्रह्माण्ड में शीतलता बढ़ती रही है। एक सैकैण्ड के भीतर ही चारों बल स्वतन्त्र होकर अपने अपने कार्य करने लगे थे। पदार्थ और प्रतिपदार्थ का टकराकर ऊर्जा तथा पदार्थ में बदलना (किन्तु ऊर्जा का वापिस पदार्थ तथा प्रतिपदार्थ में बनना नहीं) ब्रह्माण्ड की 1 सैकैण्ड की आयु तक चला तथा प्रतिपदार्थ समाप्त हो गए।