Monday, August 15, 2011

प्राकृतिक, प्रतिनिधि तथा उन्नत रंग: हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला चित्र कैसे लेती है?: भाग 3

इस लेख मे हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला द्वारा लिए जाने वाले तीन प्रकार के चित्रों और उन्हे बनाने की विधि का वर्णन किया गया है।

 प्राकृतिक रंगों वाला चित्र
  प्रस्तुत चित्र को इ एस ओ 510- जी13 आकाशगंगा के लाल,हरा और निला प्रकाश के फिल्टर से लिए गये तीन श्वेत श्याम चित्रो से बनाया गया है।इस चित्र मे रंगो का निर्धारण इस तरह से किया गया है कि अंतिम चित्र इस आकाशगंगा की मानव आंखो को दिखायी देने वाली छवि के जैसा निर्मित हो। यह चित्र इस आकाशगंगा के वास्तविक चित्र के जैसा होता है।
इस आकाशगंगा का अधिकतर भाग सफेद रंग का है क्योंकि इस क्षेत्र मे भिन्न भिन्न रंगो के तारे है जो अंतिम चित्र मे मिलकर सफेद रंग बना रहे है।लेकिन धूल के गहरे पट्टे के पास जो आकाशगंगा को दो भागो मे बांट रहा है, तारों का प्रकाश लालीमा लिए हुये है। ये धूल का पट्टा निले रंग के प्रकाश को रोक लेता है लेकिन लाल प्रकाश इससे पार हो जा रहा है।यह प्रभाव आप फिल्टर से ली गयी श्वेत श्याम चित्र मे ज्यादा अच्छे से देख सकते है। ध्यान दे कि यह धूल का पट्टा नीले फिल्टर वाले श्वेत श्याम चित्र मे ज्यादा स्पष्ट है।
प्रतिनिधि रंगों वाला चित्र
  प्रस्तुत चित्र अवरक्त फिल्टर से लिया गया है। अवरक्त प्रकाश मानव आंखो से दिखायी नही देता है। वैज्ञानिको इस चित्र मे रंग भरे है जिससे मानव आंखे उसे देख सकें और समझ सके।इस चित्र मे सबसे कम तरंग दैधर्य के अवरक्त प्रकाश को निला रंग , सबसे ज्यादा तरंग दैधर्य के अवरक्त प्रकाश को लाल रंग तथा इन दोनो के मध्य के तरंगदैधर्य के प्रकाश को हरा रंग दिया है।इस तरह बने अंतिम चित्र मे रंगीन पट्टे दिखायी दे रहे है जोकि शनि के उपरी वातावरण के बादलो के रासायनिक संरचना मे अंतर को दर्शा रहे है। बादलो की रासायनिक संरचना के अंतर के कारण वे सूर्य प्रकाश को भिन्न भिन्न तरह से परावर्तित करते है।शनि के विषुवत के समीप, उपरी सतह के बादल अवरक्त प्रकाश को तिव्रता से परावर्तित करते है, जो कि लाल और हरे रंग से स्पष्ट है, इनके मिश्रण से पीला रंग भी बना है। ध्रुवो के पास के उपरी सतह के बादल अवरक्त किरणो का परावर्तन उतनी अच्छी तरह से नही करते हैं जो कि निले रंग से स्पष्ट है।
उन्नत रंगो वाला चित्र
  बिल्ली की आंखो के जैसी निहारिका एक मृत तारे द्वारा एक विस्फोट द्वारा फेंकी गयी गैस से निर्मित है। इस निहारिका मे उपस्थित विभिन्न रासायनिक तत्व भिन्न भिन्न तरंग दैधर्य पर उत्सर्जित करते हैं।इस चित्र के निर्माण मे प्रयुक्त तीन श्वेत-श्याम चित्र हायड्रोजन परमाणु, आक्सीजन परमाणु और नाइट्रोजन आयन प्रदर्शित करते है।यह तीनो चित्र वास्तविकता मे लाल प्रकाश के ही भिन्न शेड मे होते है, जिससे इन तीनो तत्वो मे अंतर करना कठिन हो जाता है। इस चित्र मे इस कठिनाई को दूर करने मूल रंगो को बदल दिया गया है।इस चित्र मे हायड़्रोजन परमाणु से प्राप्त रंग लाल रंग मे, आक्सीजन से प्रकाश निले मे तथा नाइट्रोजन से प्रकाश हरे रंग मे दर्शाया गया है।

Friday, August 12, 2011

सापेक्षता का सिद्धांत

सापेक्षता का सिद्धांत (Relativity)


जीवन ! एक ऐसी शक्ति, जिसे हर तरफ महसूस किया जा सकता है। आकाश, पाताल और जमीन, हर जगह इसके अंश किसी-न-किसी रूप में मौजूद हैं। जब से धरती बसी है, इसके कण-कण में बसा जीवन एक लय में थिरक रहा है। और जीवन के इस लय को निर्धारित करती है - गति यानि Motion.

वो नियम जो पता नहीं कब से गति को निर्धारित करते चलते आ रहे हैं। हां, ये अलग बात है कि मनुष्य को इसकी जानकारी करीब 300 साल  पहले ही हुई जब दुनिया ने इन नियमों को एक नए नाम से पहचाना  - सर Issac Newton.


Issac Newton
Newton ने हमें ये बताया कि कोई भी वस्तु स्थिर या एक-समान गति की अवस्था में तब तक रह सकती है जब तक कि कोई बाहरी बल उस पर कार्य न करें। ये बल उसकी गति को एक खास दर से बढ़ा भी सकता है और घटा भी सकता है।  परंतु गति और उसके नियमों के साथ ये प्रश्न भी उठा कि गति का निर्धारण कैसे किया जाए ? जैसे मान लें दो रेलगाडि़यां एक ही दिशा में 50 km. प्रति घंटे की रफ्तार से जा रही हो तो उन गाडि़यों में बैठे यात्रियों के लिए दूसरी ट्रेन स्थिर नजर आएगी, जबकि प्लेटफार्म पर खड़ा व्यक्ति उन गाडि़यों को 50 km.प्रति घंटे की रफ्तार से जाता हुआ मानेगा। तो प्रश्न ये था कि ट्रेन की गति का मान किसके अनुमान पर निर्धारित किया जाए ? 


ट्रेन में बैठे व्यक्ति के अनुमान पर, या फिर प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति के अनुमान पर ?

जवाब था कि दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। वस्तु की गति का मान, अनुमान लगाने वाले व्यक्ति की स्थिति पर निर्भर करेगा, अर्थात् वो स्थिर अवस्था में अनुमान लगा रहा है या गतिशील होकर। संक्षेप में कहें तो निष्कर्ष था - गति निरपेक्ष (absolute)  नहीं बल्कि सापेक्ष (Relative)  है। पर गति को सापेक्ष मानने के बाद उससे एक और सवाल जुड़ गया। क्या भौतिकी के बाकी सारे नियम गति की तरह सापेक्ष होंगे ? उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति 40 km प्रति घंटे की रफ्तार से जाती हुई गाड़ी में भौतिकी या भौतिक नियमों से जुड़ा कोई भी प्रयोग कर रहा हो और दूसरा व्यक्ति प्लेटफार्म पर खड़े होकर वही प्रयोग कर रहा हो तो क्या दोनों के परिणाम अलग होंगे ? जवाब था नहीं।

17 वीं सदी में अपना स्वरूप प्राप्त कर रही भौतिकी यानि Physics ने सापेक्षता का पहला सिद्धांत दिया, और वो ये कि स्थिर या एक-समान गति की अवस्था में भौतिकी के नियम (Physical laws) नहीं बदलेंगे। 


गैलिलियो और न्यूटन के जमाने से ज्ञात Classical Theory of Relativity  के नाम से मशहूर सापेक्षता का ये सिद्धांत उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक बिना किसी चुनौती के कायम रहा पर तभी तक, 
जब तक Maxwell  नामक वैज्ञानिक के सिद्धांतों पर किये प्रयोगों ने ये साबित नहीं कर दिया कि एक ऐसी गति भी है जिसका मान स्थिर है, और वो है - प्रकाश की गति 



Charged Particle  के Motion (विद्युतभारित कण की गति) का अध्ययन करते हुए उन्होने पाया कि इस Motion (गति) से जो  electric  और magnetic field बनती हैं, वो एक 
तरंग के रूप में उस charged particle से निकलती है। Maxwell  ने इसे electromagnetic waves  यानि विद्युत-चुंबकीय तरंग कहा और जब इन तरंगों की गति का गणितीय आंकलन शुरू किया तो पाया कि इसका ‘मान’ (value)  वही है जो ‘प्रकाश’ की गति का है।
परन्तु एक समस्या तब भी थी और वो थी माध्यम यानि medium  की। उस वक्त ध्वनि आदि बाकी तरंगों की तरह प्रकाश के गमन के लिए भी एक माध्यम की कल्पना की गई जिसे ईथर कहा गया। पर ईथर को सच मानने का मतलब था पृथ्वी के साथ उसकी गति से घूमते हुए ईथर की दिशा में प्रकाश की गति और उसकी विपरीत दिशा में प्रकाश की गति में फर्क आना चाहिए था, पर ऐसा नहीं था। माइकल्सन और मोरले नामक वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा ये साबित किया कि दिशा में प्रकाश का मान दो  विपरीत दिशाओं में एक ही है, जिसका मतलब था ईथर नामक कोई माध्यम exist ही नहीं करता यानि  प्रकाश की गति का मान किसी माध्यम के सापेक्ष नहीं बल्कि निरपेक्ष या absolute  है और हर दिशा में एक समान है।

आगे इन waves पर किए गए प्रयोगों ने ये साबित किया कि विद्युत-चुंबकीय तरंग, तरंगों का एक परिवार है, जिसमें रेडियो और gama  तरंगों से लेकर प्रकाश की वो तरंगे भी शामिल हैं जो हमें दिखाई देती हैं। और इन सब तरंगों के ‘कंपन की दर’ (frequency) और ‘प्रति तरंग लंबाई’ (wavelength)  भले ही अलग हो, इन सबकि गति का मान एक ही होता है और स्थिर (constant)  भी रहता है।

उन्नीसवीं सदी का अंत और बीसवीं सदी का आरंभ वैज्ञानिक हलचलों का समय था। प्रकाश की गति के स्थिर मान यानि constant value  की धारणा ने एक वैज्ञानिक के अंदर ऐसी बौद्धिक हलचल मचाई कि उससे पैदा हुई उसकी सोच ने न्यूटन के गति के नियमों की सर्वमान्यता (universality) को जड़ से हिला दिया। इस वैज्ञानिक का नाम था Albert Einstein.


 Albert Einstein
आइंस्टाइन का ये मानना था कि प्रकाश की गति अगर Constant  है तो इसे स्थिर या गतिशील किसी भी परिप्रेक्ष्य में constant  होना चाहिए और इसे उन्होंने गणितीय रूप से साबित भी किया। आइंस्टाइन ने ये कहा कि चूँकि गति, स्थान और समय का अनुपात होती है, इसलिए गति के मान को स्थिर रखने के लिए स्थान और समय को भी परिप्रेक्ष्य  के हिसाब से बदलना होगा।

(J.V. Narlikar) Expert, भारत के सुप्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक जयंत विष्णु नार्लिकर, जो इस विषय को बड़े ही सरल और रोचक ढंग से समझाते हैं।


जयंत विष्णु नार्लिकर
आइंस्टाइन ने Light केSpeed  के Constant होने को भौतिकी के मूल नियम का परिणाम माना जिसे हर परिप्रेक्ष्य में एक समान होना चाहिए। पर Speed एक समान होने के लिए स्थान और समय (space & time) को मापने का तरीका भी अलग होना चाहिए। इसी आधार पर Einstein  ने अपने Mathematical Calculations गणित के समीकरणों के आधार पर बताया कि गतिशील माध्यम में Space Contract होगा या छोटा होगा, पर समय का अनुमान ज्यादा होगा। जैसे मान लीजिए एक चलती ट्रेन में एक  meter rod  रखा हुआ है तो आइंस्टाइन के अनुसार उस मीटर रॉड की लंबाई ट्रेन के बाहर खड़े observer के लिए कम हो जाएगी और उसी ट्रेन में एक घड़ी रखी हो तो बाहर खड़े observer के लिए वो घड़ी slow चलेगी यानि उसके लिए समय ट्रेन में देर से बीतेगा। 

जबकि ट्रेन में बैठे व्यक्ति के लिए रॉड की लंबाई और घड़ी के समय में कोई परिवर्तन नहीं होगा। पर  अगर observer  चलती ट्रेन में हो और घड़ी तथा रॉड  बाहर हो तो वही परिवर्तन दिखाई देगा।
आइंस्टाइन ने अपने  mathmatical calculation के द्वारा ये बताया कि गतिशील माध्यम में space contract या संकुचित होगा पर समय का अनुमान ज्यादा होगा जैसे मान लीजिए एक चलती ट्रेन में एक मीटर रोड रखा हुआ है तो  Einstein  के अनुसार उस मीटर रॉड की लम्बाई ट्रेन के बाहर खड़े observer  के लिए कम हो जायेगी और उसी ट्रेन में एक घड़ी रखी हो तो बाहर खड़े observer  के लिए वही घड़ी slow चलेगी यानि उसके लिए समय ट्रेन में देर से बीतेगा जबकि ट्रेन में बैठे व्यक्ति के लिए रोड की लम्बाई और घड़ी के समय में कोई परिवर्तन नहीं होगा। पर अगर observer चलती ट्रेन में हो और घड़ी तथा रॉड बाहर हों तो वही परिवर्तन दिखाई देगा। पर Einstein  के गणितीय समीकरण के अनुसार ये space और time का variation  तभी अनुभव किया जा सकता है जब किसी  गतिशील माध्यम की गति प्रकाश की गति के करीब हो। जबकि हमारे आम जीवन में दुनिया की सबसे तेज चलने वाली रेलगाड़ी भी हमें ये अनुभव नहीं दिला सकती क्योंकि उसकी गति 3 लाख कि.मी. /सेकेंड वाली प्रकाश की गति की तुलना में रत्ती मात्र भी नहीं। यही कारण है कि स्थान और समय की सापेक्षता को हम आम जिंदगी में महसूस नहीं कर पाते।

आइंस्टाइन की ये अवधारणा  Special Theory of Relativity  के नाम से विख्यात है। 


पर सवाल ये उठता है कि जिस सिद्धांत को गणितीय रूप से आइंस्टाइन ने बखूबी साबित कर दिया, क्या उसका कोई प्रमाण भी है ?

आइंस्टाइन एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिनकी अवधारणाएँ (concepts) कल्पना में जन्म लेती थी और गणितीय सूत्रों और समीकरणों द्वारा साबित होती थी जिन्हें बाद में वैज्ञानिक प्रायोगिक तौर पर भी सही पाते थे। और यही आइंस्टाइन की एक वैज्ञानिक के तौर पर महानता थी।

1905 के आस-पास, जब आइंस्टाइन ने अपना Special Theory of Relativity का paper  लिखा, उस वक्त वो एक Swiss patent  ऑफिस में एक क्लर्क की हैसियत से काम कर रहे थे। यही वो समय था जब अपनी Relativity  की Special Theory  को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने एक और क्रांतिकारी सिद्धांत प्रतिपादित किया जो एक छोटे से गणितीय सूत्र (Formula) के रूप में उनके नाम से हमेशा के लिए जुड़ गया, और वो फार्मूला था E = mc²,  जिसका मतलब था कि mass (वस्तुमान),  energy (ऊर्जा) में, और Energy, mass में बदल सकती है। 


आइंस्टाइन ने बताया कि mass भी relative है और किसी वस्तु की गति बढ़ने से उसका mass भी बढ़ेगा। 


Spaceऔर time absolute नहीं है सिर्फ इतना साबित करके  Einstein का वैज्ञानिक दिमाग संतुष्ट नहीं था। उन्हें एक सवाल बार-बार परेशान कर रहा था और वो ये कि 'space'और 'time' किसी accelerated frame में कैसे व्यवहार करेंगे ?
न्यूटन के अनुसार दो वस्तुओं के बीच की gravitational pull यानि Instantaneous  होती है और ये बात धरती और सूर्य के साथ भी लागू है। पर अगर हम ऐसी कल्पना करें कि सूर्य नष्ट हो गया है तो हमें इसका पता आठ मिनट बाद लगेगा क्योंकि सूर्य की रोशनी धरती तक पहुंचने में आठ मिनट लेती है। पर न्यूटन के अनुसार gravity का प्रभाव तात्कालिक होता है इसलिए सूर्य के गुरूत्वाकर्शण प्रभाव के नष्ट होने का पता तुरंत यानि प्रकाश के धरती पर पहुंचने से पहले ही लग जाना चाहिए जो कि special theory of Relativity के मूलभूत सिद्धांत से मेल नहीं खाती। इसके अनुसार कोई भी Physical Intaraction या परिणाम प्रकाश की गति से ज्यादा तेजी से move नहीं कर सकता। इसी विरोधाभास ने आइंस्टाइन को न्यूटन की गुरूत्वाकर्शण की अवधारणा पर पुनः सोचने के लिए मजबूर कर दिया। 

इसके लिए आइंस्टाइन ने चुना अपनी ही पृथ्वी के gravitational field को। धरती द्वारा पैदा  gravitational acceleration का अंदाजा लेते हुए गणित की कवायद एक बार फिर शुरू हुई, और इस बार नतीजा और भी चैंकानेवाला था।  


उन्होंने ये दावा किया कि gravity यानि गुरुत्वाकर्षण Space-time की geometry को प्रभावित करती है। यानि space और  time  की हमारी रेखागणितीय परिकल्पना बदल जाएगी, क्योंकि गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव से दो बिंदुओं के बीच की सीधी या न्यूनतम दूरी एक सरल रेखा ना होकर एक curved line होगी।


होता ये है कि प्रकाश की रेखाएं तो सीधी ही जाती हैं पर गुरूत्वार्षण की वजह से curved हो गये space से गुजरने के कारण ये मुड़ी हुई नजर आती हैं। पर सवाल ये था कि जो अवधारणा earth के gravitation field के लिए लागू है, क्या वो किसी भी accelerated frame of reference के लिए भी लागू है, यानि equivalent  है ? आइंस्टाइन का जवाब था - ‘हाँ’ उनके अनुसार अगर एक व्यक्ति धरती पर किसी एक कमरे में बैठा हो या फिर धरती के gravitational acc. से ही जाती हुई किसी अंतरिक्ष यान में बैठा हो तो उसके स्थान और समय के अनुभव में कोई अंतर नहीं होगा। आइंस्टाइन ने इसे equivalence principle का नाम दिया। 

इस अवधारणा कोEinstein's elevator  नामक मशहूर thought expt. के जरिए भी समझा जा सकता है। 
हम ऐसे elevator  की कल्पना करें जो space में धरती की तरफ freely  गिर रहा है, लगभग उसी तरह जैसे आपके बिल्डिंग का elevator cable  कट जाने से गिरेगा।  Free fall  की इस स्थिति में elevator में खड़ा कोई व्यक्ति किसी भी तरह से ये नहीं जान सकता कि उस पर या उसके द्वारा किए जा रहे किसी भी प्रयोग पर  gravity का कोई प्रभाव है। उसे अपने ऊपर गुरूत्वाकर्षण का प्रभाव पता ही नहीं चलेगा, यानि वो अपने को भार-हीन महसूस करेगा। 

इसलिए उसके आसपास में, जैसे कि elevator के अंदर, Relativity की Special Theory लागू होगी, पर बाहर के observer के लिए elevator  accelerated  होगा, और उसके लिए lift के अंदर की घटना गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव में नजर आएगी। 
इसलिए लिफ्ट की एक दीवार से निकली हुई एक प्रकाश की रेखा लिफ्ट के अंदर के व्यक्ति के लिए सीधी रेखा में लिफ्ट की दूसरी दीवार तक जायेगी। पर लिफ्ट के बाहर space में खड़े व्यक्ति को वही रेखा मुड़ी हुई दिखाई देगी।

Gravitation द्वारा प्रकाश के मुड़ने का दावा और उससे ये निष्कर्ष कि स्थान या space  में मोड़ है,Einstein की दूसरी क्रांतिकारी अवधारणा थी जिसने gravity  को देखने और परखने का नजरिया ही बदल दिया। 

आइंस्टाइन की इस अवधारणा ने न्यूटन के गुरूत्वाकर्षण के नियमों को भी चुनौती दी।  क्योंकि आइंस्टाइन के मुताबिक सूर्य के चारों तरफ  घूमने वाले ग्रह curved space follow  करते हैं, ना कि सूर्य की गुरूत्वाकर्षण शक्ति की वजह से उसके चारों तरफ घूमते हैं। हालांकि उसकी कल्पना करना जरा मुश्किल है, पर इसे एक तरीके से अच्छी तरह समझा जा सकता है। 


एक rubber की sheet  लें जिस पर कुछ vertical और horizontal lines खींची हों। Sheet  को stretch कर दें। और उसके centre में एक बड़ी गेंद रख दें। 

हम देखेंगे की गेंद के पास जो लाइने हैं वो थोड़ी तिरछी दिखाई देंगी और sheet में एक slope  या  curve पैदा हो जाएगा। अब हम जब एक दूसरी गेंद इस सतह पर डालेंगे तो वो उस curve की वजह से बड़े ball के पास चली जाएगी। कमाल की बात ये थी कि आइंस्टाइन के Mathematical Calculations और काल्पनिक प्रयोग फिर सच साबित हुए। सन् 1919 में आइंस्टाइन उस वक्त रातों-रात काफी मशहूर हो गए जब British खगोल शास्त्रियों  के एक दल ने पूर्ण सूर्य ग्रहण की तस्वीरें लेते समय उस सितारे की  virtual image  
नजर आई जिसकी वास्तविक position  छिपी हुई थी और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस सितारे से निकले प्रकाश की रेखा सूर्य के गुरुत्वाकर्षण की वजह से मुड़ी और उसकी  image उसके वास्तविक position  से अलग हटकर नजर आई। 


Einstein द्वारा gravity यानि गुरूत्वाकर्षण की नई परिकल्पना general theory of Relativity (व्यापक सापेक्षतावाद) के नाम से विख्यात हुई। समय के साथ-साथ gravity  द्वारा space के  curve होने के और भी सुबूत मिले। निरीक्षणों द्वारा बुद्ध ग्रह की कक्षा में सूर्य के सबसे समीप वाले बिन्दु यानि Perihelion में एक shift  अनुभव किया गया। हालांकि एक शताब्दी में सिर्फ 43 arch sec. का ये shift बहुत ही मामूली था। पर गुरूत्वाकर्शण द्वारा space में curve पैदा होने के सुबूत के लिहाज से काफी था। 

आइंस्टाइन के इस नये नजरिये ने हमें अंतरिक्ष और उसके रहस्यों को ढूँढने के लिए एक पुख्ता हथियार  दे दिया। आज Black holes जैसी अवधारणाएँ इसके माध्यम से explain की जा रही हैं जहां gravitational pull  इतना ज्यादा है कि light 360º  तक मुड़ जाती है या यूँ कहें कि वो निकल ही नही पाती। 

पर अपनी इतनी सारी खूबियों के बावजूद Einstein  की General theory of Relativity सभी सवालों का जवाब नहीं दे पायी। क्या ब्रह्मांड में इतना matter है जिसकी gravity space को एक sphere की तरह बांध कर रख सके ? आइंस्टाइन ने कहा, हां।  उन्होंने universe (ब्रह्मांड) को closed यानि सीमित माना था। पर आइंस्टाइन की ये धारणा गलत निकली।  ऐसे प्रमाण वैज्ञानिकों के हाथ लगे जिनसे ये साबित होता था कि universe expand कर रहा है यानि फैल रहा है। पर शायद यही विज्ञान है, सिद्धांत और प्रयोग के बीच से ही इसकी यात्रा चलती है - सवालों को जवाब और जवाबों को नए सवाल देती हुई।

क्वांटम युग

हमारी इस व्यापक दुनिया और उसकी क्रियाएँ कुछ भौतिक नियमों पर आधारित हैं, इसकी कल्पना एक वैज्ञानिक के अलावा किसी और व्यक्ति द्वारा कर पाना थोड़ा मुश्किल है। इन भौतिक नियमों की खोज तो गैलीलियो और न्यूटन के समय से ही प्रारंभ थी, पर उन्नीसवीं शताब्दी के शुरू होने से लेकर उसके अंत तक हमारे पास कई ऐसे नियम थे जो हमारी प्राकृतिक और भौतिक दुनिया के कार्य-कलापों की सही व्याख्या कर सकते थे। इनमें कई आज भी हमारी दुनिया को सफलतापूर्वक चला रहे हैं। 

चलती हुई गाड़ी से हमें कैसे उतरना है, सड़क को मोड़ देने के लिए Gradieant कितनी होनी चाहिए, बिल्डिंग बनाते हुए concrete  की strength  क्या होना चाहिए, कितने  voltage से कितनी current बहनी चाहिए,हवाई जहाज के निर्माण में aerodynamic सिद्धांतों का कैसे पालन किया जाता है। 

इनमें से हर चीज के लिए हमारे पास सही-सही और ठोस उत्तर हैं।  लगभगया अनुमानजैसे शब्दों का हमारी भौतिक दुनिया के नियमों से कोई वास्ता नहीं। वो दुनिया जो हमारी नजरों के सामने है, जिसकी क्रिया-कलापों को सही-सही मापा और तौला जा सकता है। 

हम शायद अपनी इस दुनिया में खुश रहते अगर उन्नीसवीं सदी के वैज्ञानिकों की जिज्ञासा ने हमारा परिचय हमारी ही भौतिक दुनिया के उस सूक्ष्म रूप से नहीं कराया होता, जिसे हम परमाणुओं की दुनिया कहते हैं। ये उन छोटे-छोटे कणों की दुनिया थी, जिन्हें हम नंगी आंखों से नहीं देख सकते थे। पर जब-जब हमने इनकी दुनिया को जानने की कोशिश की और अपने भौतिक नियमों से उनको परखना चाहा, हम असफल हुए। इन छोटे-छोटे कणों के पास गति तो थी, पर वो हमारे गति के नियम नहीं मानते थे, उनके पास आवेग यानि momentum  तो था पर उनसे पैदा हुए बल के गुण कुछ और ही थे, जो न्यूटन द्वारा प्रस्थापित ढांचे में नहीं बैठते थे।
न्यूटन ने हमें ये सिखाया कि प्रकृति के सभी कार्यों का वर्णन अच्छी तरह से निर्धारित गणित द्वारा किया जा सकता है। पर न्यूटन के सभी परिमाण, परमाणुओं की इस दुनिया में असफल साबित हुए। छोटी दुनिया की इस बड़ी चुनौती को वैज्ञानिकों ने एक नया नाम दिया-QUANTUM PHYSICS.


QUANTUM PHYSICS
 Quantum Physics े उदभव और विकास की कहानी का सबसे पहला chapter ै - Black body radiation.

(Why a black-body radiation is called a black-body radiation)

मोटे तौर पर किसी बंद भट्टी (oven) के अंदर के  thermal radiations से इसकी तुलना की जा सकती है। जब इस radiant energy  के pattern को body के temp.के बढ़ने के साथ study किया गया तो उसमें एक विशिष्ट परिमाण में frequency कंपन की दर और wavelength (प्रति-तरंग लंबाई) में बँटे ऊर्जा के pattern मिले। पर विविध लंबाई की तरंगों में कितनी विकिरण ऊर्जा बँटी होनी चाहिए, इसका जवाब classical physics के पास नहीं था।
कई वैज्ञानिकों जैसे Kirchoft, Wein आदि ने इसे समझने की कोशिश की, पर इस प्रयास में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाए। आखिर वैज्ञानिक मैक्सप्लांक (Planck) ने ये सुझाया कि ये thermal radiation continuous नहीं बल्कि discreet packets के रूप में निकलते हैं, जिसे उन्होंने 'Quanta' कहा। उन्होंने ये बताया कि हर packet की अपनी frequency होती है और वह जो ऊर्जा धारण करता है, उस फ्रीक्वेंसी को एक निश्चित संख्या से गुणा करने पर पाया जा सकता है। और इस तरह black-body की विकीरण ऊर्जा के variable pattern को समझा जा सकता है, उनके इस निश्चित स्थिरांक को उन्हीं के नाम पर Planck's Constant कहा गया।

वैज्ञानिक मैक्सप्लांक
 Planck का ये constant 'h'  जिसका मान h 6.63 x 10-34 joules-second होता है, ने इस समस्या को सुलझा तो दिया पर ये प्रति पैकेट ऊर्जा का फार्मूला क्यों होता है, इसका जवाब Planck के पास नहीं था।

उन्नीसवीं सदी खत्म होते-होते करीब 1898 में J.J. Thomson ने electron  की खोज कर ली थी और बीसवीं सदी के आरंभ में परमाणुओं के structure (स्वरूप) की परिकल्पना जोर पकड़ने लगी थी। परमाणु के नाभिक के चारों तरफ इलेक्ट्रॉन कैसे घूमते हैं, इस पर विचार होने लगे और इसके लिए नए-नए model सुझाए जाने लगे। वैज्ञानिकों को आकर्षित किया इस Planetary model ने। पर इस model की परिकल्पना classical physics के अनुसार गलत थी। 



पर इस contradiction का कारण बना Maxwell का Electromagnetic सिद्धांत। इस सिद्धांत के अनुसार accelerated motion में किसी भी घूमते विद्युत्भारित कण यानि moving charged particle की ऊर्जा विद्युत-चुंबकीय तरंगों के रूप में निकलती है। जिसका मतलब था कि orbit में घूमता हुआ electron जो कि एक negatively charged particle है अपनी ऊर्जा को विद्युत चुंबकीय तरंगों के रूप में खोता रहेगा और अंततः spiral  करता हुआ नाभिक में जा गिरेगा। यह बहुत ही कम समय में होगा...............इसलिए इस धारणा को सच मानने का मतलब था, atom को unstable मानना, जो कि संभव नहीं था।

Maxwell

इस समस्या का समाधान निकाला डेनमार्क के वैज्ञानिक Neils Bohr  ने। Bohr तप्त Hydrogen gas से प्राप्त radiation spectrum की लाइनों का अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने ये व्याख्या दी,  कि electron जब अपने orbit में घूमता है तो कोई ऊर्जा विकिरित नहीं करता, बल्कि वह ऊर्जा उस समय बाहर छोड़ता है जब वो एक  अधिक ऊर्जा वाले orbit से दूसरे कम ऊर्जा के orbit में jump करता है।

वह इस ऊर्जा को photon नामक एक massless particle यानि प्रकाशकण के रूप में वह बाहर निकालता है। ये energy,  packets के रूप में होती है, और इस energy  का मान निर्धारित करने के लिए Bohr ने लिया Planck  की कल्पना का सहारा।

उन्होंने कहा कि Hydrogen की spectrum में प्राप्त अलग-अलग लाइनों की frequency  को Plank के constant से गुणा किया जाए तो orbit को jump करने के दौरान electron  द्वारा बाहर छोड़ी गई ऊर्जा का हिसाब लगाया जा सकता है।


Planck  द्वारा दिया गया स्थिरांक’ (Constant)  और इसका मूल्य (value) एक ऐसा गणितीय चमत्कार था जिसने Black body radiation  को भी explain किया और Bohr ने इसकी मदद लेते हुए Planetary model  के द्वारा Hydrogen gas की spectral lines की सही व्याख्या भी कर दी। पर इन दोनों उदाहरणों में Planck  और Bohr ने 'How' (कैसे) तो explain कर दिया पर 'why' (क्यों) का जवाब उनके पास भी नहीं था।


सवाल था कि आखिर क्यूँ particle  होते हुए भी, electron, electromagnetic theory पर खरा नहीं उतर रहा था। क्योंकि हर charged particle  जो move कर रहा है उसे मैक्सबेल की electro-magnetic theory का पालन करना चाहिए,


जो कि एक सत्यापित भौतिक नियम है। तो क्या इसका मतलब ये था कि orbit  में घूमते वक्त electron  एक particle की तरह व्यवहार नहीं करता ? इस अजीब से सवाल का उतना ही अजीब जवाब भी था। जवाब था कि orbit में घूमते वक्त electron एक particle या matter की तरह नहीं बल्कि एक wave की तरह व्यवहार करता है। और ये जवाब जिस वैज्ञानिक ने ढूंढा, उसका नाम था - De-broglie.

De-broglie
 De-broglie की इस धारणा से पहले आइंस्टाइन ने 1905 में एक क्रांतिकारी धारणा पहले ही दे दी थी कि प्रकाश की तरंगे एक कणों के समूह की तरह व्यवहार करती हैं। आइंस्टाइन की ये धारणा प्रायोगिक तौर पर भी सही पाई गई, जब प्रकाश की तरंगे एक metal (धातु) के Plate पर डाली गईं तो उससे इलेक्ट्रॉन बाहर निकल पड़े जिनको electric current के रूप में measure भी किया गया। आइंस्टाइन ने इसकी व्याख्या इस तरह से की, कि प्रकाश एक particle के रूप में metal से टकराकर अपनी ऊर्जा electron को दे देता है और उस ऊर्जा को लेकर electron, metal से बाहर निकल जाता है। आइंस्टाइन का ये सिद्धांत Photo-electric effect के नाम से मशहूर हुआ जिसके लिए उन्हें Nobel Prize से भी नवाजा गया। Photo-electric effect के कई उदाहरण हम आम जिंदगी में हर रोज देख सकते हैं, खासकर photo sensors से जुड़े किसी भी application  में इसका अनुभव किया जा सकता है। आइंस्टाइन की इस अवधारणा के बाद Light wave के photon  के रूप में यानि matter की तरह व्यवहार करने में कोई संदेह नहीं रहा।

उधर De-broglie ने अपनी परिकल्पना को एक गणितीय रूप दिया था जिसमें उन्होंने कहा कि electron जब एक wave की तरह व्यवहार करेगा तो उसका wavelength, Planck के Constant को उसके momentum  से divide करने पर प्राप्त होगा। Electron कणों के इस wave nature को De-broglie ने 100 electron volt की ऊर्जा वाले electron के crystal differaction द्वारा साबित किया, जहां उन्हें किसी wave की तरह ही electron के भी differaction pattern मिले।


De-broglie  के इस सिद्धांत ने Bohr के atomic model  को सही पीठिका दी थी, जिसके अनुसार हर orbit  को एक अलग-अलग मान (value) के energy levels के रूप में माना जा सकता है, और electron  जब ऊर्जा की ऊँची सतह से निचली सतह पर कुदान करता है तो energy  एक packet  के रूप में release  करता है जो photon यानि Light के रूप में दिखाई देती है।  साथ ही साथ ये धारणा भी प्रयोग के तौर पर सही पाई
गई कि photon द्वारा योग्य परिमाण में ऊर्जा दिए जाने पर electron निचली सतह से ऊपरी सतह में भी जा सकता है। परमाणु में ऊर्जा की विभिन्न सतहों में electron के होने की परिकल्पना ने एक और आविष्कार को जन्म दिया, जिसे हम LASER के नाम से जानते हैं। आज Quantum Physics की इस अहम् देन से हम सब वाकिफ हैं चाहे वो इंजिनियरिंग का क्षेत्र हो या फिर Medical Science का।
Quantum Physics की इस दुनिया में हमने wave को particle और particle को wave की तरह व्यवहार करने की आजादी तो दे दी, पर कब वो ऐसा करेंगे यानि कब particle, wave की तरह व्यवहार करेगा और wave  particle की तरह, इसका कोई ठोस जवाब हमारे पास नहीं था, और ना ही आज है। Stern – Gerlach  नामक वैज्ञानिक भी अपने मशहूर double slit experiment द्वारा सिर्फ यही साबित कर पाए कि Electron का wave या particle के रूप में व्यवहार निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता यानि electron का इनमें से किसी भी रूप में व्यवहार करना probability यानि संभावना पर आधारित है।

De-broglie के matter wave (particle wave) के wavelength को निर्धारित करने वाले फार्मूले (wavelength=h/p) के आधार पर ये कहा जा सकता था कि अगर particle का momentum बहुत ज्यादा होगा तो wavelength काफी कम और उस हालत में particle का position काफी हद तक निर्धारित किया जा सकता है क्योंकि उस वक्त यह एक point particle की तरह व्यवहार करेगा। दूसरी तरफ, अगर momentum काफी कम हो तो wavelength काफी ज्यादा होगा जिसका मतलब था कि particle, wave की तरह ज्यादा space occupy करेगा और एक wave की तरह व्यवहार करेगा।

1925 में Heisenberg ने इस व्याख्या को uncertainly principle का नाम दिया और इसको निर्धारित करने के लिए एक गणितीय formula भी दिया (êp êx = h),  जिसके अनुसार particle का position और momentum  दोनों एक साथ सटीकता के साथ नहीं मापे जा सकते और ये गणितीय formula  इसी अनिश्चितता को मापने का एक तरीका था। 
इसे हम इस तरह से समझ सकते हैं - मान लीजिए हम electron  की position निर्धारित करने के लिए अगर प्रकाश डालें, तो electron का वास्तुमान इतना हल्का होता है कि प्रकाश की तरंगे उसे खिसका देंगी, इसलिए उसके position  को हम precisely बता नहीं सकते......... )

Wave-particle duality   और uncertainty से होती हुई Quantum Physics अंततः उस जगह पहुँची जहां particle के wave nature  और उसके व्यवहार को ठीक से समझने की जरूरत हुई, एक ऐसे mathematical स्वरूप की आवश्यकता महसूस हुई, जो इसे हर तरह से, हर condition  के लिए define  कर सके। और Heisenberg  के uncertainty principle  देने के ठीक साल-भर के अंदर ही schrodinger  नामक वैज्ञानिक ये गणितीय हल दे दिया जो हर particle  के wave characteristic को बखूबी दर्शा सके। और आज 80 सालों के बाद भी Schrodinger का wave equation अनेक समस्याओं का हल देता चला आ रहा है। तब से  लेकर आज तक हालांकि Quantum Physics की यात्रा जारी है, पर इसमें कुछ नये मोड़ भी आए हैं। 

Bohr के Hydrogen atom के model पर काम  करने वालों को उस वक्त कुछ नए धारणाओं की जरूरत महसूस हुई जब कुछ complex atoms की spectral lines को नापा गया और एक ही orbit के electrons के व्यवहार में अंतर पाया गया। कुछ दशाओं में ये पाया गया कि एक ही orbit के दो electrons बाकी सारे मापदण्डों में बराबर होने पर भी व्यवहार में अंतर दिखा रहे हैं। इसका मतलब था कि इलेक्ट्रॉन कणों का कोई और ऐसा गुण है जो तब तक पता नहीं था। और ये गुण था 'spin'. यानि electron का अपने axis पर भी घूमना। और फिर ये पाया गया कि दो electrons  के behavior में अंतर  'spin'  के अलग-अलग दिशाओं की वजह से भी हो सकता है।


इसकी मदद लेकर Pauli नाम के वैज्ञानिक ने exclusion का सिद्धांत दिया, जिसके मुताबिक कोई भी दो electron एक ही क्वांटम स्थिति में नहीं हो सकते, अर्थात् उनकी ऊर्जा (energy), आवेग (momentum)  और स्पिन में कहीं न कहीं अंतर होगा। 

Electron  के spin की धारणा ने Quantum Physics को भी एक नया spin दिया। electron जैसे कणों का spin पूरा है या आधा (integral or non-integral), इन दो संभावनाओं को लेकर भी गणित के इस्तेमाल द्वारा एक नये विषय की नींव पड़ी जिसे Quantum Statistics कहते हैं। और इसके द्वारा matter (particle) के अलग-अलग व्यवहारों की व्याख्या करने की कोशिश की गई।



 
पर छोटे-छोटे particles की दुनिया की व्याख्या करने वाली Quantum Physics के गणितीय फार्मूलों और धारणाओं का इस्तेमाल कभी-कभी एक बड़े वस्तुमान mass के व्यवहार को समझने में भी किया जा सकता है,  इसका सुबूत दिया भारत में जन्में वैज्ञानिक Subramanyam Chandra Shekhar  ने, जिसके लिए उन्हें Nobel Prize भी मिला। जब सूरज जैसा तारा अपनी सारी नाभिकीय ऊर्जा प्रकाशित कर चुकता है तो उसका गुरूत्वीय आकुंचन होते होते उसके सभी इलेक्ट्रॉन इतने पास-पास ठूंसे जाते हैं कि पावली के नियम का परिणाम दिखाई देता है यानि और अधिक ठूँसने की संभावना न रहने से तारे का आकुंचन रूक जाता है। ऐसी स्थिर अवस्था में आये तारे को White Dwarf  कहते हैं। पर पावली का नियम लागू होने के लिये यह जरूरी है कि तारे का वस्तुमान एक निश्चित सीमा से अधिक न हो। इस सीमा या limitation को चन्द्रशेखर limit कहते हैं क्योंकि इसे निर्धारित करने का काम चन्द्रशेखर ने किया था।


Subramanyam Chandra Shekhar  
 लेकिन इन सफलताओं के बावजूद आइंस्टाइन क्वांटम फिजिक्स को परिपूर्ण नहीं मानते थे न तो Bhor और उनकी Quantum Physics की Probability  वाली दुनिया को स्वीकार ही कर पाते थे। उन्होंने कहा भी था कि "God doesn't play dice with the universe." यानि भगवान हमारी दुनिया के निर्णय पासे फेंक कर नहीं करता। कहीं कोई निश्चित pattern है जिसे हम अब तक नहीं ढूंढ पाए हैं। इसलिए वह अनिश्चित लगता है। क्या आइंस्टाइन की यह धारणा सही थी ? कहीं कोई ऐसा नियम है, कोई ऐसा सूत्र है जिनसे सारे नियम निकलते हैं। चाहे वो भौतिक दुनिया के हों, या परमाणुओं की दुनिया के। आइंस्टाइन से असहमत रहने वाले भी यह मानते हैं कि Quantum Physics की नींव अभी सुदृढ़ नहीं है। संभावनाओं पर आधारित समीकरणों की मदद से अब तक ‘how’ यानि कैसेका जवाब तो काफी हद तक इसने ढूंढ लिया गया है। पिछले दो दशकों में वैज्ञानिक John Bell के  गणित पर आधारित कुछ प्रयोगों ने ऐसे दृढ़ संकेत (definite indications) दिए हैं जो 'Bohr' द्वारा प्रस्थापित संभावनाओं पर आधारित सूक्ष्म दुनिया के इस चित्र को काफी हद तक सही ठहराते हैं। पर क्योंकी तलाश अब भी जारी है।