अग्निहोत्र के कर्मकाण्ड की व्याख्या वर्तमान समय के भौतिक विज्ञान में बिग बैंग(आरम्भिक महान विस्फोट द्वारा इस ब्रह्माण्ड का सृजन) द्वारा भी की जा सकती है । इस सिद्धान्त के अनुसार आरम्भ में केवल ऊर्जा थी जिसमें कोई भयंकर विस्फोट हुआ और उससे सारी ऊर्जा द्रव्य के रूप में घनीभूत हो गई । विस्फोट क्यों हुआ, यह किसी को पता नहीं है । न्यूटन के काल से ही यह माना जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड अचर/अप्रगामी/स्तब्ध है क्योंकि आकाश में तारे प्रतिदिन ज्यों के त्यों दिखाई देते हैं । आइन्स्टीन ने गणित के माध्यम से इस तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया । लेकिन सन् १९३६ के आसपास गेमोव तथा अन्य ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यह ब्रह्माण्ड अचर नहीं है, अपितु लगातार प्रसार कर रहा है और वर्तमान काल में इसकी पुष्टि हो रही है कि यही वास्तविक तथ्य है । हाल के वर्षों में श्री जे.ए.गोवान ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि आरम्भ में प्रकाश की गति से प्रसरण कर रहे ब्रह्माण्ड को द्रव्य के रूप में संकुचित होने की आवश्यकता क्यों पडी । श्री गोवान का कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि इसके द्वारा ऊर्जा अपने को अधिक काल तक सुरक्षित रख सकती है । श्री गोवान ने ऊर्जा के इस रूपान्तरण के जो परिणाम निकाले हैं, वह इस प्रकार से हैं :
श्री गोवान ने अपनी मान्यता को पुष्ट करने के लिए जिन नियमों को आधार बनाया है, उनमें से एक नोएथर नियम है जिसका प्रतिपादन ई सन् १९१८ के लगभग श्रीमती नोएथर ने किया था । इस सिद्धान्त के अनुसार किसी तन्त्र की सममिति एक स्थिरांक है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता । यदि उस तन्त्र को विभिन्न अवयवों में तोड दिया जाए तो कुल मिलाकर उन अवयवों की सममिति अपरिवर्तनीय रहेगी । बिग बैंग से पहले केवल ऊर्जा विद्यमान थी, द्रव्य नहीं । और प्रकाश ऊर्जा का यह गुण है कि यह प्रकाश की गति से चारों ओर प्रसरण करती है । अतः इस ऊर्जा को सममित कहा जाता है, क्योंकि यह किसी दिशा विशेष से रहित है । जब बिग बैंग के पश्चात् द्रव्य का निर्माण हुआ तो उसमें भी यह सममिति स्थिर रहनी चाहिए । लेकिन यह सर्वविदित है कि द्रव्य सममित नहीं है । प्रकाश की भांति द्रव्य की गति चारों दिशाओं में एक साथ नहीं हो सकती, केवल एक दिशा में ही हो सकती है । सममिति को स्थिर रखने के लिए प्रतिद्रव्य की कल्पना करनी पडी है कि इस ब्रह्माण्ड के अतिरिक्त एक प्रति - ब्रह्माण्ड भी है जिसकी सममिति इस ब्रह्माण्ड की सममिति से उलटी है । लेकिन श्री गोवान के अनुसार द्रव्य में भी सममिति की झलक गुरुत्वाकर्षण के रूप में विद्यमान रहती है । इसके अतिरिक्त, द्रव्य में जो उसके इलेक्ट्रान, प्रोटान आदि अवयवों के रूप में आवेश विद्यमान होता है, वह भी उसी आरम्भिक सममिति का अवशिष्ट हैं ।
श्री गोवान ने गुरुत्वाकर्षण के एक और तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है और वह यह कि गुरुत्वाकर्षण का गुण आकर्षण का है । वास्तव में यह उस आकाश को ग्रस रहा है जिसका सृजन प्रकाश ऊर्जा अपने प्रसरण द्वारा कर रही है । आभासी रूप में हमें इसका आभास इस प्रकार होता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का आकर्षण करता है । यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रकाशीय ऊर्जा के प्रसरण के वेग c को श्री गोवान ने एण्ट्रापी/अव्यवस्था की एक प्रमाप के रूप में ग्रहण किया है ( श्री गोवान के शब्दों में एण्ट्रांपी ड्राइव) । गुरुत्वाकर्षण इस अव्यवस्था में ह्रास लाता है ।
श्री गोवान ने अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए दूसरा आधार ऊर्जा के परिमाण की स्थिरता को बनाया है । प्रकाश की ऊर्जा उसकी आवृत्ति पर निर्भर करती है( E = hv) जहां v प्रकाश की तरंग की आवृत्ति है । दूसरी ओर, द्रव्य का ऊर्जा परिमाण उसकी मात्रा तथा वेग पर निर्भर करता है । द्रव्य की ऊर्जा के संदर्भ में आइन्स्टीन ने जो समीकरण दी है, वह E = mc२ है जहां m द्रव्य की मात्रा है तथा c वह अधिकतम वेग है जो द्रव्य अर्जित कर सकता है । इसकी अधिकतम सीमा प्रकाश का वेग है ।
ऊर्जा के द्रव्य में परिणत होने का एक परिणाम काल के प्राकट्य के रूप में होता है । ऊर्जा में काल केवल अप्रत्यक्ष रूप में उसकी आवृत्ति में विद्यमान है । लेकिन द्रव्य में यह प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होता है क्योंकि द्रव्य का ऊर्जा परिमाण वेग( दूरी/काल) पर निर्भर करता है । एण्ट्रांपी नियम की यह मांग है कि प्रकाश की भांति काल प्रभावी रूप से अनंत वेग से चारण करे । काल से कार्य - कारण का जन्म होता है जिसके अनुसार किसी कार्य के पीछे एक कारण विद्यमान होता है । काल का चारण केवल भविष्य की दिशा में ही है, भूत की दिशा में नहीं । कारण कार्य को प्रभावित कर सकता है, कार्य कारण को नहीं ( इस विषय में इण्टरनेट पर विस्तृत विवाद उपलब्ध हैं ) ।
द्रव्य के प्राकट्य से सूचना के तन्त्र का सृजन हुआ है जिसे आज हम कम्प्यूणर युग के रूप में देख रहे हैं । केवल द्रव्य में ही सूचना को एकत्र किया जा सकता है, शुद्ध ऊर्जा में नहीं (?)।
श्री गोवान का कहना है कि इस पृथिवी पर रहकर हम केवल ऊर्जा के द्रव्य में परिणत होने की कल्पना करते हैं । लेकिन जब द्रव्य का घनत्व बहुत अधिक हो जाता है तो द्रव्य फिर ऊर्जा में परिणत होने लगता है, जैसा कि सूर्य पर होता है । पृथिवी का घनत्व चूंकि कम है, अतः दूसरी घटना यहां नहीं घट पाती ।
इस भूमिका के पश्चात् अब हम वास्तविक लक्ष्य अग्निहोत्र पर आते हैं । अग्निहोत्र का कर्मकाण्ड प्रतिदिन दिन और रात्रि के घटित होने पर आधारित है । अध्यात्म में यह दिन और रात्रि किस प्रकार घटित हो सकते हैं, यह अन्वेषणीय है। दिन सूर्य है और रात्रि पृथिवी । सूर्य प्राणों का बृहत् रूप है जबकि पृथिवी हमारी देह का । हमारे शीर्ष प्राण सूर्य के निकटतम हैं । अतः यह देखना होगा कि अग्निहोत्र के शास्त्रीय कर्मकाण्ड का हमारे शीर्ष प्राणों के उदय - अस्त होने से कितना तादात्म्य है । जैमिनीय ब्राह्मण १.७ का कथन है कि सायंकाल अस्त होने पर सूर्य ६ प्रकार से अपने को छिपाता है । ब्राह्मण में यह श्रद्धा के रूप में प्रवेश करता है, पशुओं में पयः के रूप में, अग्नि में तेज के रूप में, ओषधियों में ऊर्क् के रूप में, आपः में रस रूप में और वनस्पतियों में स्वधा के रूप में । यह कहा जा सकता है कि श्रद्धा, पयः आदि का अध्यात्म में वही स्थान है जो द्रव्य में विद्यमान सममित आवेश का, जो श्री गोवान के अनुसार नष्ट हुई सममित ऊर्जा की सममिति का अवशिष्ट है । ऐसा अनुमान है कि उपरोक्त ६ द्रव्यों के अभाव को ही जैमिनीय ब्राह्मण २.३६३ में पाप कहा गया है । यह ६ पाप हैं - स्वप्न, तन्द्री, मन्यु, अशना, अक्षकाम्या और स्त्रीकाम्या । श्रद्धा( शृतं दधाति इति, जो पके हुए को धारण करता है ) के अभाव के परिणामस्वरूप अचेतन मन से स्वप्न उत्पन्न होते हैं । पयः के अभाव का परिणाम तन्द्री कहा गया है । तन्द्री का अर्थ है - आलस्य, काम करने में शिथिलता । जैसा कि पयः शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, पयः का प्रादुर्भाव तब होता है जब कोई तनाव विद्यमान न हो । वनस्पतियों का पयः गुरुत्वाकर्षण आदि तनावों के कारण काष्ठ में परिणत हो जाता है । पयः को सुरक्षित रखने के लिए बीज अपने ऊपर मोटा आवरण बनाते हैं, तब पयः को सुरक्षित रख पाते हैं । केवल पशुओं में पयः की विद्यमानता कही गई है । वही स्तनधारी होते हैं । तन्द्री शब्द को तन्त्री शब्द का अपभ्रंश माना जा सकता है । जहां तन्त्र शिथिल हो गया हो, वह तन्द्री है । तेज के अभाव का परिणाम मन्यु( मज्जा में उत्पन्न होने वाला क्रोध) है । यदि मन्यु की ऊर्जा का सम्यक् उपयोग किया गया होता तो वह तेज रूप में परिणत हो सकता था । ओषधियों में ऊर्क् के अभाव का परिणाम अशना, भोजन की इच्छा है । आपः में रस के अभाव का परिणाम अक्षकाम्या अर्थात् अक्षों, इन्द्रियों द्वारा रसों को ग्रहण करना है । वनस्पतियों में स्वधा के अभाव का परिणाम स्त्रीकाम्या कहा गया है । वनस्पतियों की विशेषता यह होती है कि उनकी किसी शाखा को भंग कर देने पर वह पुनः अंकुरित हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि वनस्पतियों में स्टेम कोशिकाएं होती हैं जो तुरन्त नवनिर्माण कर सकती हैं । पशुओं या मनुष्यों के अंगों में स्टेम कोशिकाएं सीमित मात्रा में ही रह जाती हैं, जैसे नासिका आदि में । इस कारण एक बार अंग भंग हो जाए तो वह पुनः उत्पन्न नहीं हो पाता । वैदिक साहित्य के अनुसार यह अपेक्षित है कि प्रत्येक अंग में स्टेम कोशिकाओं का निर्माण होना संभव बनाया जाए । वनस्पतियों के स्वधा गुण की प्राप्ति समित् चयन द्वारा की जाती है । कहा गया है कि ब्रह्मचारी अपने गुरु के लिए वन से समित् का आहरण करता है जिससे गुरु समित् द्वारा यज्ञ कर सके । यह समित् सममित स्थिति हो सकती है जो स्टेम कोशिकाओं का निर्माण करती होगी ।
जैमिनीय ब्राह्मण में जहां अस्त होता सूर्य अपने आपको ६ प्रकार से अग्नि में छिपाता है, वहीं ब्रह्माण्ड पुराण में ब्रह्मा द्वारा चार प्रकार से इस जगत में छिपने का उल्लेख है । स्थावरों में वह विपर्यास रूप में, तिर्यकों में शक्ति रूप में, मनुष्यों में बुद्धि और सिद्धि रूप में तथा देवों में वह पुष्टि रूप में छिपता है । पुराणों के इस कथन से जैमिनीय ब्राह्मण के इस कथन पर प्रकाश पड सकता है कि अस्त होता हुआ सूर्य ब्राह्मणों में श्रद्धा रूप में छिपता है । पुष्टि तब हो सकती है जब श्रद्धा में सत्य का प्रवेश हो । केवल मात्र श्रद्धा असत्य आधार पर भी टिकी हो सकती है । मनुष्यों में बुद्धि और सिद्धि की तुलना जैमिनीय ब्राह्मण में पशुओं में पयः के प्रवेश से की जा सकती है । जैमिनीय ब्राह्मण में अग्निहोत्र के संदर्भ में ही पयः के श्रपण की विभिन्न अवस्थाओं का भी उल्लेख है, जैसे पहली अवस्था में पयः गौ के स्तनों में होता है । दूसरी अवस्था में वह दुग्ध स्थिति में, तीसरी अवस्था में अग्नि पर श्रपण के कारण उष्ण स्थिति में, चौथी अवस्था में शर (दुग्ध के ऊपर मलाई) के रूप में इत्यादि । इसकी चरम परिणति वाजपेय के रूप में कही गई है । डा. फतहसिंह के अनुसार वाज वह अन्न या प्राण होता है जिसके द्वारा भूत और भविष्य, दोनों ओर की सूचनाएं प्राप्त हो सकती हैं । अतः जैमिनीय ब्राह्मण के पयः को पुराणों की बुद्धि और सिद्धि के तुल्य माना जा सकता है । इसके पश्चात् जैमिनीय ब्राह्मण में सूर्य के अग्नि में तेज रूप में छिपने का उल्लेख है । कहा गया है कि जो क्रोध है, वह लोहितकुल्या, लोहित की नदी है,जबकि तेज घृतकुल्या है । क्रोध आने पर रक्त में उष्णता आ जाती है, जबकि तेज से प्रतीत होता है कि मज्जा या इसके समकक्ष किसी धातु में उष्णता आती होगी । इससे अगली अवस्था सूर्य के ओषधियों में ऊर्क् के रूप में छिपने की है जिसकी व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । पांचवी अवस्था में सूर्य के आपः में रस रूप में छिपने का उल्लेख है । इस को उच्च व्यवस्था की स्थिति अथवा न्यून एण्ट्रांपी की स्थिति कहा जा सकता है । ब्राह्मण ग्रन्थों का कथन है कि जिसे शास्त्रीय भाषा में रथन्तर कहा जाता है, वह वास्तव में रसन्तमम् स्थिति है । इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में रस का तादात्म्य रथ से है । जैमिनीय ब्राह्मण में (विकसित होते हुए प्राणों की? ) रथ के कईं प्रकारों की कल्पना की गई है । सबसे पहली स्थिति में अग्नि के रिहन्/लिहन् अवगुण को पार करना पडता है । अग्नि का एक गुण है भस्म करना और दूसरा विपरीत गुण है अर्चि, चमकना । रथ की दूसरी अवस्था धूम की है जिसमें वायु के अजिर( अ - जीव, ऐसे प्राण जो जीवन प्रदान न कर सकें) अवगुण को पार करना पडता है । रथ की तीसरी अवस्था रेष्मा कही गई है जिसमें आदित्य के म्रोvचन अर्थात् न चमकने? के अवगुण को पार करना पडता है । रथ की चौथी अवस्था रश्मि कही गई है जिसमें यम के अवत्स्यन् ? अवगुण को पार करना पडता है । पांचवी अवस्था में प्रजापति के प्रभूमान् अवगुण को पार करने का उल्लेख है । अन्तिम स्थिति - स्थावरों में विपर्यास/प्रति - सममिति की तुलना वनस्पतियों की स्वधा/समित् से की जा सकती है । पुराणों में तो कथाएं आती हैं कि अमुक असुर के भय से यज्ञ में विद्यमान देव अलग - अलग वृक्षों में छिप गए । वह वृक्ष उन - उन देवों के प्रिय बन गए ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अध्यात्म में अग्निहोत्र के घटित होने की प्रक्रिया को शीर्ष प्राणों के उदय - अस्त द्वारा समझा जा सकता है । प्रतिदिन सोते समय शीर्ष प्राणों का अस्त हो जाता है । यह प्रेक्षण का विषय है कि क्या हमारे शीर्ष प्राण अस्त होने पर वही प्रभाव उत्पन्न करते हैं जिनका उल्लेख जैमिनीय ब्राह्मण में किया गया है ? सबसे पहला घटक श्रद्धा/पुष्टि है जिसका विपरीत घटक स्वप्न है । यह दोनों ही हमारे अन्दर घटित हो रहे हो सकते हैं । शीर्ष प्राण अस्त होने पर हमारी देह के अन्य प्राणों की पुष्टि करते होंगे । दूसरा घटक पयः है जिसका विपरीत घटक तन्द्री/शिथिलता/तनाव है । यह घटक भी अपने दोनों रूपों में विद्यमान होता होगा । तीसरा घटक तेज है जिसका विपरीत घटक मन्यु कहा गया है । चौथा घटक ऊर्क् है जिसका विपरीत घटक अशना है । पांचवां घटक आपः में रस है जिसका विपरीत घटक अक्षकाम्या है । छठां घटक स्वधा/समित्/सममिति है जिसका विपरीत घटक स्त्रीकाम्या है ।
उपरोक्त विवेचन केवल अस्त होते हुए सूर्य के लिए है । जैमिनीय ब्राह्मण में उदित होते हुए सूर्य का जो वर्णन है, वह भविष्य में अन्वेषणीय है । जैमिनीय ब्राह्मण के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ प्राण तो ऐसे रहेंगे जिनका पूर्ण विकास नहीं हो पाएगा । उन प्राणों पर अग्नि का आधिपत्य होगा । कुछ प्राण पूर्ण विकसित होकर सूर्य का, अथवा कहा जाए कि हमारे सिर के प्राणों का रूप ले सकेंगे । प्राणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं का उल्लेख ऊपर धूम, रेष्मा, रश्मि आदि के रूप में किया जा चुका है ।
जैमिनीय ब्राह्मण में अग्निहोत्र के विद्वान् समझे जाने वाले कुछ ऋषियों का जनक/याज्ञवल्क्य से संवाद दिखाया गया है । सबसे पहले गौतम का उल्लेख है जो यश के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी भी यश, आदित्य भी यश । दूसरे स्थान पर आरुणि वाजसनेय का उल्लेख है जो सत्य के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी भी सत्य, आदित्य भी सत्य । सत्य और श्रद्धा के सम्बन्ध का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । यह उल्लेखनीय है कि केवल अरुण अवस्था में, सूर्य के उदय काल की अवस्था में सत्यानृत का विवेक करना कठिन होता होगा । और सारा अग्निहोत्र या तो सूर्य के उदय के काल से सम्बन्धित है, या अस्त काल से । सूर्य की बीच की अवस्थाओं का अग्निहोत्र से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता । तीसरे स्थान पर प्रिय जानश्रुतेय(ज्ञानश्रुतेय?) का उल्लेख है जो तेज रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध का, तेज का उपयोग प्राणों को प्रिय रूप में रूपान्तरित करने में होना चाहिए, ऐसे प्राण जिनके बिना हम जीवित ही न रह सकें । चौथे स्थान पर बर्कुर /वृक वार्ष्णेय का उल्लेख है जो भूयः रूप में, वित्त रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । कहा जाता है कि १५ कलाएं वित्त हैं, जबकि १६वी कला स्वयं आत्मा है । १५ कलाएं उसकी परिधियां हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि अग्निहोत्र में सूर्य की १३वी कला, चन्द्रमा की १६वी कलाओं आदि के महत्त्व को भी स्थान मिला है । पांचवें स्थान पर बुडिल आश्वतराश्वि वैयाघ्रपद्य का उल्लेख है जो अर्क - अश्वमेध के रूप में अग्निहोत्र का अभ्यास करते हैं । पृथिवी अर्क है, सूर्य अश्वमेध है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, अर्क अवस्था अग्नि की चमकने वाली अवस्था है जो लिहन् अवस्था के विपरीत है । बुडिल नाम का तात्पर्य बुड्ढ धातु के आधार पर बूढेपन को नियन्त्रित करने वाले के रूप में लिया जा सकता है । इन पांच के उल्लेखों के पश्चात् जनक एक छठी स्थिति का उपदेश करते हैं जिसे इति और गति कहा गया है । पृथिवी इति है, सूर्य गति है । डा. फतहसिंह के अनुसार वैदिक साहित्य में गति ज्ञान के अर्थ में भी आता है ( गम् - ज्ञाने ) । वर्तमान में इति शब्द की किसी व्याख्या के अभाव में इति को इतिहास रूप में समझ सकते हैं । इतिहास अर्थात् जहां कार्य - कारण व्यवस्था विद्यमान हो । पृथिवी अपना अन्नाद्य भाग चन्द्रमा में कृष्ण रूप में स्थापित करती है । सूर्य अपना अन्नाद्य भाग पृथिवी में ऊषर रूप में स्थापित करता है । हो सकता है कि श्री गोवान ने पृथिवी द्वारा अपने गुरुत्वाकर्षण के माध्यम से ब्रह्माण्ड के विस्तार के ग्रसन का जो उल्लेख किया है, वह शास्त्रीय भाषा में इति के रूप में प्रकट हुआ हो ।
जिस प्रकार भौतिक जगत में ऊर्जा का द्रव्य में और द्रव्य का ऊर्जा में रूपान्तरण चलता रहता है, वैसे ही अग्निहोत्र में भी प्रातः और सायंकालीन अग्निहोत्र में होता है । प्रातःकालीन अग्निहोत्र कर्मकाण्ड में मुख्य रूप से जो मन्त्र बोला जाता है, वह इस प्रकार है : सूर्यो ज्योति: ज्योति: सूर्य: स्वाहा( वाक् द्वारा उच्च स्वर में ) और अग्निर्ज्योति: ज्योतिरग्निः स्वाहा ( मन द्वारा तूष्णीम् ) । यह उल्लेखनीय है कि अग्निहोत्र के कर्मकाण्ड की ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध व्याख्या में मुख्य रूप से वाक् और मन को स्थान मिला है जबकि प्राण, मन और वाक् के त्रिक में प्राण को प्रायः पृष्ठभूमि में ही रख दिया गया है । भौतिक आधार तो यह है कि अहोरात्र केवल सूर्य/प्राण और पृथिवी/देह/आत्मा की सापेक्ष गति के कारण घटित होते हैं । चन्द्रमा की गति तो केवल दर्श - पूर्णमास को प्रभावित करती है । लेकिन अग्निहोत्र में यह आधार क्यों नहीं लिया गया है, इसका कारण है । प्राण दो प्रकार के हैं - जाग्रत और सुप्त । यदि जाग्रत प्राणों का सम्यक् उपयोग नहीं किया जाता तो यह प्राण क्रन्दन करने लगते हैं, रोने लगते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण में इस तथ्य को इस रूप में कहा गया है कि जो पशुओं को मारकर खाता है, दूसरे लोक में पशु रूपी पुरुष उस क्रन्दन करते हुए पुरुष को मारकर खाते हैं । इसी प्रकार यदि व्रीहि, यव आदि अन्न जिनमें प्राण सुप्त अवस्था में हैं, जो बोल नहीं सकते, यदि उनका भक्षण अयज्ञीय रूप से किया जाता है तो दूसरे लोक में वह व्रीहि - यव आदि पुरुष उसका तूष्णीं रूप में हनन करके भक्षण करते हैं । यदि ऐसे पाप घटित हो चुके हैं, तो उनका क्या प्रायश्चित्त है ? कहा गया है कि अग्निहोत्र में जो वाक् द्वारा उच्च स्वर से यजु बोला जाता है, वह क्रन्दन करने वाले प्राणों का प्रायश्चित्त है । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि जाग्रत प्राणों का उपयोग किसी प्रकार से वाक् को विकसित करने में, अपनी आत्मा की आवाज को विकसित करने में कर लिया जाए तो प्रायश्चित्त हो जाएगा । इसी प्रकार जो प्राण सुप्त थे और उनका दुरुपयोग किया गया है तो उसका प्रायश्चित्त मन द्वारा तूष्णीं रूप में मन्त्र का उच्चारण करने में है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो सुप्त प्राण हैं, उनमें मन का, अचेतन मन का विकास कर लिया जाए तो प्रायश्चित्त हो जाएगा । कहा गया है कि मन के अनुदिश प्राण हैं, वाक् के अनुदिश आत्मा है । अतः यह कहा जा सकता है कि जब श्री गोवान द्रव्य को घनीभूत करके द्रव्य को पुनः प्रकाशीय ऊर्जा में रूपान्तरित करने की बात करते हैं तो अध्यात्म में इस द्रव्य को वाक् लिया जा सकता है । इस वाक् या पृथिवी को घनीभूत कैसे किया जा सकता है कि नाभिकीय विखण्डन की प्रक्रिया घटित हो जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है । पौराणिक साहित्य में कहा जाता है कि यह पृथिवी द्वेष आदि के कारण कटी - फटी है, इसे समतल बनाना है, पृथु बनाना है । महाभारत में बक रूप धारी यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न पूछता है । यहां बक शुद्ध वाक् का विकृत रूप है जो संवाद के अन्त में अपना वास्तविक रूप यम या धर्म के रूप में प्रकट करता है । यह भी जानना महत्त्वपूर्ण है कि बक रूपी वाक् का संवाद क्या मन रूपी युधिष्ठिर से होता है?
सायंकालीन अग्निहोत्र में जिस मन्त्र का उच्चारण किया जाता है, वह है - अग्निर्ज्योति: ज्योतिरग्निः स्वाहा( वाक् द्वारा उच्च स्वर से ) और सूर्यो ज्योति: ज्योति: सूर्य: स्वाहा ( मन द्वारा तूष्णीं रूप में ) । इस प्रकार अग्निहोत्र ऊर्जा के दो - तरफा रूपान्तरण का मार्ग प्रस्तुत करता है । इस रूपान्तरण का लाभ यह बताया गया है कि इससे कार्य - कारण सिद्धान्त निरर्थक हो जाता है । यह महत्त्वपूर्ण है कि अग्निहोत्र की व्याख्याओं में काल को प्रत्यक्ष रूप में कहीं स्थान नहीं मिल पाया है ।