लगभग तीन लाख वर्षों तक ब्रह्माण्ड में प्रोटॉन, न्यूट्रॉन तथा अन्य नाभिक, फोटॉन, इलैक्ट्रॉन तथा न्युट्रनो के अपारदर्शी महासागर में एक दूसरे से टकराते रहे किन्तु दिख नहीं रहे थे! यह सब इतना घना था कि फोटान अन्य कणों से लगातार टकराते रहे और इसलिये वे बाहर नहीं निकल सकते थे और इसलिये ब्रह्माण्ड दिख नहीं सकता था। इसलिये इसे ‘प्रकाश का अन्धमहासागर’ भी कह सकते हैं।
इस काल के अन्त तक ब्रह्माण्ड का तापक्रम लगभग 3000 ‘कै’ हो गया था। अतएव फोटॉनों की ऊर्जा अब कम हो गई थी और वे उस महासागर से बाहर निकल सकते थे। फोटॉनों को पूरी मुक्ति मिलने में लगभग दस लाख वर्ष लगे। इस युग को ‘पुनर्संयोजन युग’ (रीकॉम्बिनेशन एरा) कहते हैं। पुनर्संयोजन युग में निर्मित फोटॉनों का विशाल सागर अभी तक मौजूद है और यही हमें ‘पृष्ठभूमि सूक्ष्म तरंग विकिरण’ के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त दिखाई देता है।
इसका नाप सर्वप्रथम 1965 में लिया गया था, जो बाद में कई बार संपुष्ट किया गया। इस विकिरण की शक्ति लगभग 1370 करोड़ वर्षों में बहुत क्षीण हो गई है और इसका तापक्रम मात्र 2.73 ख (परम शून्य से 2.73 शतांश ऊपर) (270.43 अंश शतांश) है। लगभग सभी वैज्ञानिक इस तथ्य को महान विस्फोट की सुनिश्चित पहचान मानते हैं।
यह विकिरण सारे ब्रह्माण्ड में समरूप है अथार्त पुनर्संयोजन युग के काल में ब्रह्माण्ड एकरस था। तब आज के दृश्य–ब्रह्माण्ड में शून्य के महासागर में तारों से लेकर मन्दाकिनियों, मन्दाकिनि–गुच्छों तथा मन्दाकिनि–चादरों जैसी अल्प द्वीपों के रूप में अवस्थिति क्यों है? 1992 में ‘पृष्ठभूमि सूक्ष्मतरंग विकिरण’ के पदार्थ के घनत्व के वितरण में विचलनों की परिशुद्ध खोज की गई और पाया गया कि उस वितरण में यहां वहां बहुत सूक्ष्म विचलन थे। वही विचलन हमें आज गुरुत्वाकर्षण बलों द्वारा संवधिर्त होकर तारों, मन्दाकिनियों आदि के रूप में दिखाई दे रहे हैं।